SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ से पृथ्वी उत्पन्न हुई। दिव्यशक्ति ने तीनों - तेज, पानी और पृथ्वी में प्रवेश कर उन्हें नाम रूप दिया। एक वैदिक पुराण में सृष्टिक्रम इस प्रकार बताया गया है कि 'पहले यह जगत् घोर अन्धकारमय था। बिल्कुल अज्ञात, अविलक्षण, अतर्क्स और अविज्ञेय । मानों वह बिल्कुल सोया हुआ था। वह एक समुद्र के रूप में था। उसमें स्थावर, जंगम, देव, राक्षस, उरग, भुजंग आदि सब प्राणी नष्ट हो गये थे। केवल गढ़ा सा बना हुआ था, जो पृथ्वी आदि महाभूतों से रहित था। मन से भी अचिन्त्य विभु सोये हुए तपस्या कर रहे थे। सोये हुये विभु की नाभि से एक कमल निकला, जो तरूण सूर्य बिम्ब के समान तेजस्वी, मनोरम और स्वर्णकर्णिका वाला था। उस कमल में से दण्ड और यज्ञोपवित से युक्त ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिन्होंने वहीं आठ जगन्माताएँ बनायी - (1) दिति, (2) अदिति, (3) मनु, (4) विनता, (5)कद्रु, (6) सुलसा, (7) सुरभि और (8) इला। दिति ने दैत्यों को, अदिति ने देवों को, मनु ने मनुष्यों को, विनता ने सभी प्रकार के पक्षियों को, क्रदु ने सभी प्रकार के सरीसृपों को, सुलसा ने नागजातीय प्राणियों को, सुरभि ने चौपाये जानवरों को और इला ने समस्त बीजों को उत्पन्न किया। मनुस्मृति के अनुसार ब्रह्मा ने अपने शरीर को दो भागों में बाँटा- एक पुरुष, दूसरी स्त्री। स्त्री ने 'विराज' को उत्पन्न किया। उसने तपस्या कर एक पुरुष को जन्म दिया। वही मनु कहलाया। मनु ने पहले दस प्रजापतियों को जन्म दिया। उनसे सात मनु, ईश्वर, देवता, ऋषि, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, अप्सराएँ, सर्प, पक्षी, तथा अन्यान्य सभी जीव और नक्षत्र उत्पन्न हुए। ब्रह्मा गाढ निद्रा से जागृत हुए। सृष्टि का विचार उत्पन्न हुआ। उन्होंने पहले आकाश को उत्पन्न किया। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से पानी और पानी से पृथ्वी उत्पन्न हुई। यह समूची सृष्टि का आदि क्रम है।' 3. ईश्वरकृत लोक . 'इसरेण कडे लोए' अर्थात् यह लोक ईश्वरकृत है। ईश्वरकर्तृत्ववाद की मान्यता मुख्यतया तीन दर्शनों में प्रचलित है - वेदान्त, न्याय एवं वैशेषिक। वेदान्ती ईश्वर को ही जगत् का उपादान एवं निमित्त कारण मानते है। मुण्डको-पनिषद् के अनुसार जिस प्रकार मकड़ी अपने ही शरीर से स्वयं जाला बनाती है तथा उसे अपने ही शरीर में समेट लेती है, जिस प्रकार पृथ्वी में औषधियाँ 290 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy