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________________ इतना ही नही, इस प्रकार की बुद्धि अर्थात् मनुष्य को खली एवं कुमार को तुम्बा समझकर पकाया गया माँस बुद्धों के पारणे के योग्य है। इस प्रकार पकाये हुए माँस द्वारा जो व्यक्ति प्रतिदिन दो हजार शाक्य भिक्षुओं को भोजन कराता है, वह महान् पुण्यराशि का उपार्जन करता है। उसके फलस्वरूप आरोप्य नामक देवयोनि में जन्म लेता है। आर्द्रक मुनि द्वारा बौद्धों के अपसिद्धान्त का खण्डन - बौद्धावलम्बिओं की इस मान्यता का प्रतिकार करते हुए आर्द्रकुमार कहते है कि खली को पुरुष तथा तुम्बेको कुमार समझना कैसे सम्भव है ? पुरुष में खली एवं कुमार में तुम्बे की बुद्धि नही हो सकती। ऐसी प्ररूपणा में जो विश्वास करते है, वे घोर अज्ञानी है । उनका यह कथन भी निराधार एवं नितान्त मिथ्या है कि जो व्यक्ति दो हजार शाक्य भिक्षुओं को नित्य प्रति भोजन करवाता है, वह उत्तमगति को प्राप्त होता है। बल्कि ऐसे माँसाहारी साधुओं को जो भोजन करवाता है, वह असंयत है, अनार्य है, रक्तपाणि है, अतः परलोक में वह अनार्य गति को प्राप्त होता है। बौद्ध भिक्षु मांसभक्षण के द्वारा भी अपने आपको पापकर्म से अलिप्त मानते है - इससे बढ़कर और क्या अज्ञान हो सकता है । माँस हिंसाजनित रौद्रध्यान तु, अपवित्र, अनार्यजन से सेवित एवं नरकगति का कारण है। जो मांसभोजी है, वे अनार्य और रसलोलुप राक्षस के समान होने से नरकगामी है। आत्मा को स्वयमेव नरक में डालने के कारण आत्मद्रोही है । " आर्हतसिद्धान्त का समर्थन - समस्त प्राणियों की रक्षा के उद्देश्य से ज्ञातपुत्र महावीर तथा उनके अनुयायी ओद्देशिक भोजन का सर्वथा त्याग करते है। वे सात्विक आहार भी उद्गम, उत्पादना एवं एषणा के 42 दोषों से रहित, शुद्ध, निरवद्य एवं कल्पनीय होने पर ही ग्रहण करते है । इसलिये माँस भोजन की बात तो बहुत दूर है, परन्तु अद्देशिक भोजन का भी वे त्याग करते है । प्रथम अध्ययन के तृतीय उद्देशक की पहली गाथा में भी उद्दिष्ट भोजन का निषेध किया गया है। किसी भिक्षुविशेष या भिक्षुसमूह के लिये बनाया जाने वाला भोजन, वस्त्र, पात्र, स्थान आदि आर्हत मुनि के लिये अग्राह्य है । परन्तु बौद्ध भिक्षुओं के विषय में ऐसा नहीं है । तथागतबुद्ध स्वयं आमंत्रण स्वीकार करते थे। वे एवं उनका भिक्षुसंघ, उन्हीं के लिये तैयार किया गया निरामिष अथवा सामिष आहार ग्रहण करते थे । 286 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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