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________________ पर पाप नहीं होता, ऐसा कहना भी उनकी बकवास ही है। क्योंकि दूसरे के द्वारा मारे हुए प्राणी का माँस खाना भी एक प्रकार से परोक्ष अनुमोदना ही है। बौद्धों ने भी तीन आदानों में एक आदान अनुज्ञा (अनुमति) माना ही है। अन्य मतवालों ने भी कहा है - अनुमन्ता विशसिता संहर्ता क्रयविक्रयी। संस्कर्ता चोपभक्ता च घातकश्चाष्टघातका: ॥5 माँस खाने का अनुमोदन करने वाला, पशुवध करके उसके अंगों को काटकर अलग-2 करनेवाला, पशु को मारने के लिए उसे कत्लखाने में ले जाने वाला या माँस खरीदने-बेचनेवाला, पशु को मारने के लिए खरीदने या बेचने वाला, पशु माँस पकाने वाला तथा खानेवाला, ये आठों ही घातक है तथा पशुघात के पाप के भागी है। जीव हिंसा करने, कराने तथा अनुमोदन करने से कर्मोपचय होना बौद्ध भी स्वीकार करते है। इस प्रकार बौद्धमतवादी उन्मत होकर प्रलाप करते हुए स्वयं की बात का खण्डन स्वयं ही करते है। इसलिये शास्त्रकार ने इन पर 'कर्मचिन्ताप्रनष्ट' का आक्षेप लगाया है। क्रियावादियों का यह मत कि 'चतुर्विध कर्म उपचय को प्राप्त नहीं होते' संसार को बढ़ाने वाला ही है। जिस प्रकार जन्मान्ध व्यक्ति छिद्रवाली नौका पर सवार होकर नदी के उस पार जाना चाहता है परन्तु वह बीच में ही डूबकर मर जाता है, उसी प्रकार ये विभिन्न मतवादी मिथ्यात्व एवं मतमोहान्ध होकर माँसाहार, मद्यपान आदि विविध हेय कर्मों में स्वयं लिप्त होकर अपनी-अपनी दर्शन रूपी नौका के सहारे संसार को पार करना चाहते है परन्तु मिथ्यात्व की रतौंधी के कारण वे पार नहीं पाते। बल्कि बीच में ही संसार सागर में डूबकर बार-बार जन्म-मरण एवं दुर्गति के दु:खों को भोगते रहते है। सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के आर्द्रकीय नामक छट्टे अध्ययन में भी आर्द्रकुमार नामक प्रत्येकबुद्ध के शाक्य भिक्षुओं के साथ हुए वाद-विवाद में कर्मबंधन के स्वरूप की ही चर्चा है। यहाँ शाक्यभिक्षु (बौद्ध) अपनी बात का प्रतिपादन इस प्रकार करते है कि मानसिक संकल्प ही हिंसा का कारण है। कोई व्यक्ति खली के पिण्ड को मनुष्य तथा तुम्बे को बालक समझकर पकायें तो प्राणीवध के पाप का वह भागी होता है। इससे विपरीत पुरुष को खली एवं बालक को तुम्बा समझकर पकाने वाला व्यक्ति प्राणीवध के पाप का भागी नहीं होता। सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 285 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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