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________________ विशुद्ध नहीं है। उस हिंसा में मनोभाव नहीं जुड़ने पर कर्मबंध का अभाव मानना युक्तिसिद्ध नहीं है। क्योंकि ऐसा कभी नहीं होता कि मन में हिंसा के भाव तो हो पर चित्त राग-द्वेष रूप संक्लिष्ट परिणामों से अलिप्त रहे। प्राय: सभी भारतीय दर्शनिक एक स्वर से यह स्वीकार करते है कि कर्म के बंध में मन ही प्रधान कारण है। यही कारण बौद्धों ने स्वीकार किया है कि मनोव्यापार रहित केवल शरीर व्यापार से कर्म का उपचय नहीं होता। प्रधान कारण भी वही होता है, जो, जिसके होने पर हो, और न होने पर न हो। मन भी इसलिये कर्मोपचय का प्रधान कारण है, क्योंकि मनोव्यापार से ही कर्मोपचय होता है। यह प्रश्न हो सकता है कि बौद्धों ने तो शरीर चेष्टा से रहित मनोव्यापार को कर्मोपचय का कारण न होना भी बताया है। इसका समाधान उन्हीं के कथन में निहित है। जैसा कि उन्होंने माना है कि चित्तविशुद्धि ही मोक्ष का प्रधान कारण है। राग-द्वेष से वासित चित्त ही संसार है और वही चित्त रागादि क्लेशों से मुक्त होने पर मोक्ष कहलाता है। बौद्ध ग्रन्थ 'धम्मपद' में मन को ही प्रधान कारण बताया है। इस प्रकार बौद्धों के मन्तव्यानुसार क्लिष्ट मनोव्यापार पापकर्मबंध का कारण सिद्ध होता है। ईर्यापथ कर्म में सावधानी तथा उपयोगपूर्वक चलना जहाँ भावविशुद्धि है, वहीं असावधानी पूर्वक गमनागमन करना चित्त की क्लिष्टता का परिणाम है और जहाँ चित्त के परिणाम संक्लिष्ट है, वहाँ कर्मोपचय अवश्य होता है। जैन दर्शन के अनुसार जो साधक जयणा अर्थात् विवेकपूर्वक चलता है, बैठता है, सोता है, खाता है, बोलता है, वह कर्मबंध से लिप्त नहीं होता। परन्तु जो पुरुष बिना उपयोग के प्रमाद पूर्वक चलता है, तो वह जीवरक्षा में सावधान न होने के कारण पापकर्म से लिप्त होता ही है। और जब सावध मनोव्यापार होने पर भी कर्मबंध होता है, तब 'प्राणी, प्राणी का ज्ञान आदि पाँच कारणों के सम्मिलित होने पर ही कर्म का उपचय होता है।' यह कथन स्वत: असिद्ध हो जाता है। साथ ही बौद्धों का पिता द्वारा पुत्र की हत्या कर उसका माँस भक्षण करने पर भी कर्मबंधन नहीं होता, यह कथन भी असंगत सिद्ध हो जाता है। क्योंकि जब तक चित्त में 'मैं मारता हूँ' ऐसा रौद्र परिणाम नहीं आता, तब तक कोई भी व्यक्ति किसी भी जीव की हिंसा नहीं कर सकता। बौद्धों ने कहीं यह भी कहा है कि जैसे दूसरों के हाथ से अंगारा पकड़ने पर हाथ नहीं जलता, वैसे ही दूसरे के द्वारा मारे हुए जीव का मांसभक्षण करने 284 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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