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के द्वारा समझाते हुए कहते है कि जैसे राग-द्वेष रहित असंयमी पिता विपत्ति के समय अपनी उदरपूर्ति हेतु अपने पुत्र को मारकर उसके माँस का भक्षण करे तो भी वह कर्मबंध से लिप्त नहीं होता, क्योंकि उसे अपने पुत्र पर किसी भी प्रकार का द्वेष नहीं है। इसी प्रकार शुद्ध चित्तवृत्तिपूर्वक निस्पृह साधु यदि मांसभक्षण करे, तब भी वह कर्म से अलिप्त रहता है।
इस सम्बन्ध में बौद्धग्रन्थ में ऐसा ही बुद्धवचन मिलता है कि (दूसरे माँस की बात जाने दो) कोई अज्ञानी पुरुष अपने पुत्र तथा स्त्री को मारकर उस माँस का दान करे और प्रज्ञावान् संयमी (भिक्षु) उस माँस का भक्षण करे, तब भी उसे पाप नहीं लगता।'
चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है- पुत्र का भी समारम्भ करके (समारम्भ अर्थात् बेचकर), मारकर, उसके माँस से या द्रव्य से और तो क्या कहे, पुत्र न हो तो सूअर या बकरे को भी मारकर भिक्षुओं के आहारार्थ भोजन बनाए। स्वयं भी खाएँ।
तथागत बुद्ध ने इस रूपक द्वारा भिक्षुओं को यह समझाया कि वे स्वाद के लालच से, बलवर्धन, शक्तिसंचय, सौन्दर्य और लावण्य की दृष्टि से आहार न लेवे।
मालूम होता है कि बीतते समय के साथ इस रूपक का आशय विस्मृत हो गया है और केवल शब्द का अर्थ ही ध्यान में रह गया है इसलिये इस अर्थ का उपयोग मांसभक्षण के समर्थन में लोग तो क्या, भिक्षुगण भी करने लग गये हो। विशुद्धिमग्ग तथा महायान के शिक्षा समुच्चय में भी इस बात की प्ररूपणा की गयी है।
ज्ञाताधर्मका नमक छठे अंग आगम में सुंसुमा नामक एक अध्ययन है, जिसमें पूर्वोक्त संयुत्तनिकायादि प्रतिपादित रूपक के अनुसार यह प्रतिपादित किया गया है कि आपत्तिकाल में आपवादिक रूप से मनुष्य अपनी खुद की सन्तान का भी मांसभक्षण कर सकता है। यहाँ मृत सन्तान के मांसभक्षण का उल्लेख है, न कि मार कर उसका माँस खाने का। इस चर्चा का सार केवल यही है कि अनासक्त होकर भोजन करने वाला कर्म से लिप्त नहीं होता।।।
कर्मोपचय निषेधवाद का खण्डन
पूर्वोक्त चतुर्विध कर्मोपचय का निषेध करने वाले बौद्धों के मत का खण्डन करते हुए शास्त्रकार कहते है कि जो मन से किसी पर द्वेष करते है, उनका चित्त
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 283
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