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तथा बाद में तीन प्रकार के आदान से कर्मोपचय की मान्यता को स्पष्ट किया है।
प्रस्तुत मत के सन्दर्भ में चूर्णिकार ने यह प्रश्न उठाया है कि बौद्ध दर्शन में कर्मोपचय कब होता है ? इसका समाधान बौद्ध इस प्रकार करते है- प्राणी, प्राणी का ज्ञान, घातक की चिन्ता, घातक की क्रिया और प्राण वियोग इन पाँचों बातों से हिंसा होती है तथा इन्हीं से कर्मबंध होता है। अर्थात् - (1) प्रथम तो हनन किया जाने वाला प्राणी सामने हो, (2) फिर हनन करने वाले को यह ज्ञान हो कि यह प्राणी है, (3) पश्चात् हनन करने वाले की ऐसी बुद्धि हो कि मैं इसे मारू या मारता हूँ, (4) इन सबके रहते हुए यदि वह शरीर से उस प्राणी को मारने की चेष्टा करता है, (5) उस चेष्टानुसार उस प्राणी को मार दिया जाता है, तब हिंसा होती है और तभी कर्मोपचय होता है। कर्मोपचय इन पाँचों कारणों से ही होता है। इनमें से किसी एक के भी न होने पर न हिंसा होती है, न कर्म का उपचय होता है।' - यहाँ जो हिंसा के निमित्त पाँच पद कहे गये है, उनके कुल मिलाकर 32 भांगे होते है। उनमें से हिंसक तो प्रथम भंग वाला पुरुष ही होता है, शेष 31 भंग हिंसक नहीं होते। बौद्धमत में कर्मबंध के तीन आदान
शास्त्रकार ने बौद्धों के कर्मबंध के तीन आदान का कथन किया है- वध्य प्राणी को मारने की इच्छा से उस पर प्रहार करना, अन्य से करवाना, प्राणीघात करते हुए पुरुष का अनुमोदन करना।” ।
बौद्ध मत के अनुरूप ही जैन दर्शन में भी कर्मबंध के ये तीन कारण है - कृत, कारित और अनुमोदित परन्तु इनके साथ मन, वचन और कर्म इन तीन योगों का भी समावेश किया जाता है। जिससे कुल मिलाकर 49 भंग होते है। यदि इनमें से किसी एक भंग का भी सेवन किया जाता है, तो वह व्यक्ति कर्मबंधन अवश्यमेव करता है। परन्तु बौद्ध मत में ऐसा नहीं है। वे कहते है कि ये तीनों आदान मिलकर ही कर्मबंधन करते है। यदि इन तीनों में से मन से, शरीर से अथवा अनुमोदन से रहित दोनों से प्राणातिपात हो जाता है, तो वहाँ भावविशुद्धि होने के कारण कर्म का उपचय नहीं होता है। सूत्र में 'उ' शब्द, जोकि निश्चयार्थक है, इसके द्वारा यही भाव फलित होता है। अर्थात् इस भाव-विशुद्धि से निर्वाण की प्राप्ति हो जाती है। भाव-विशुद्धि को बौद्धमतवादी एक दृष्टान्त
282 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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