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की हिंसा करता है परन्तु शरीर से छेदन-भेदन रूप व्यापार नहीं करता, अत: केवल मन के द्वारा परिज्ञा (घात का चिन्तन) होने से कर्म का उपचय नहीं होता।
3. ईर्यापथ कर्म - मार्ग में आते-जाते जो हिंसा होती है, उससे भी कर्मोपचय नहीं होता।
4. स्वप्नान्तिक कर्म - स्वप्न में कृत हिंसा से भी कर्म का उपचय नहीं होता।
__ इन चारों में से शास्त्रकार ने परिज्ञोपचित तथा अविज्ञोपचित, इन दोनों का तो मूल पाठ में उल्लेख किया है। शेष दोनों का उल्लेख न करके 'च' शब्द ही प्रयुक्त किया है। उससे इन दोनों का अध्याहार (ग्रहण) हो जाता है। ये चतुर्विध कर्म स्पर्श के बाद ही नष्ट हो जाते है, ऐसा क्रियावादियों का मत है।
सूत्रकृतांग में क्रियावाद का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है - जो जीव को जानता हुआ (संकल्प पूर्वक) काया से उसे नहीं मारता अथवा अबुध हिंसा करता है - अनजान में शरीर से हिंसा करता है, वह उस कर्म के फल को स्पर्शमात्र से भोगता है। वस्तुत: वह सावद्य (पाप) कर्म अव्यक्त -अप्रकट होता है अर्थात् उपरोक्त कर्म उपचय से पुरुष बद्ध नहीं होता।
प्रश्न होता है कि यदि उक्त प्रकार से कर्मों का उपचय नहीं होता तो बौद्धों के अनुसार किस प्रक्रिया से कर्मबंध होता है ? इसका उत्तर देते हुए वे कहते है कि तीन आदान मार्ग द्वारा कर्मोपचय होता है। शास्त्रकार ने आदान मार्ग को सूत्र के माध्यम से इस प्रकार स्पष्ट किया है - (1) अभिक्रम्य- किसी प्राणी को मारने के लिये स्वयं उस पर आक्रमण करना। (2) प्रेष्य - अन्य के द्वारा प्राणी का घात करवाना। (3) अनुमोदन - घात करने के लिये मन से अनुमोदना करना।
ये तीन आदान ही कर्मबंध के कारण है, जिनसे पापकर्म किया जाता है। जहाँ ये तीन नहीं है तथा जहाँ इस प्रकार भावों की विशुद्धि है, वहाँ कर्मबंध नहीं होता प्रत्युत जीव निर्वाण को प्राप्त करता है।'
जिस प्रकार दुष्काल आदि विपत्ति के समय कोई असंयमी पिता अपने पुत्र को मारकर भोजन करे, तब भी वह उस पापकर्म से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार राग-द्वेष रहित निस्पृह, मेधावी साधु माँस खाता हुआ भी उस पापकर्म से बद्ध-लिप्त नहीं होता।
शास्त्रकार ने उपरोक्त कथन द्वारा क्रियावादियों की कर्मचिन्ता के प्रति उपेक्षा सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 281
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