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8. कर्मोपचय निषेधवाद
सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के द्वितीय उद्देशक की अंतिम नौ गाथाओं में कर्मोपचय निषेधवाद की चर्चा की गयी है । '
कर्म के उपचय (बंध) का जहाँ निषेध किया जाता है, वह कर्मोपचय निषेधवाद है। सूत्रकार ने इसे क्रियावादी दर्शन कहा है। परंतु चूर्णिकार ने 'कर्म' को क्रिया का पर्यायवाची मानकर इसका अर्थ कर्मवादी दर्शन किया है। 2
वृत्तिकार ने क्रियावादी दर्शन का रहस्य स्पष्ट करते हुए कहा है - जो केवल चैत्यकर्म (चित्त विशुद्धिपूर्वक किया जाने वाला कोई भी कर्म) को प्रधान रूप से मोक्ष का अंग मानते है, उनका दर्शन क्रियावादी दर्शन है । "
यद्यपि सूत्रकृतांग सूत्र के बारहवें समवसरण अध्ययन के प्रथम श्लोक की चूर्णि एवं वृत्ति में बौद्धों को अक्रियावादी के रूप में उल्लिखित किया है तथा बौद्धग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय के तृतीय भाग अट्ठकनिपात के सिंहसुत में तथा विनयपिटक के महावग्ग (पाली) के सीहसेनापति में भी बुद्ध को अक्रियावादी कहा है, तथापि यहाँ सूत्रकार ने स्पष्ट रूप से बौद्ध दर्शन को 'किरियावाइदरिसणं' क्रियावादी दर्शन बताया है । यह अपेक्षाकृत जानना चाहिये । '
बौद्धों को यहाँ एकान्त क्रियावादी क्यों कहा गया है, इसका कारण स्पष्ट करते हुए शास्त्रकार कहते है कि वे 'कम्म चिन्ता पणट्ठाणं' कर्मों की चिन्ता से प्रनष्ट अर्थात् दूर है। ज्ञानावरणीयादि आठ कर्म कैसे, किन कारणों से, मन्दतीव्रादि रूप से आत्मा से बंध जाते है, उनसे मुक्त होने का उपाय क्या है, सुखदुःख के जनक है या नहीं, आदि कर्म सम्बन्धी चिन्तन चिन्ता है। बौद्ध इस प्रकार की कर्म चिन्ता से नितान्त अस्पृष्ट है । अत: उन्हें यहाँ कर्म चिन्ता प्रनष्ट एकान्त क्रियावादी के रूप में निर्दिष्ट किया है।
बौद्ध-आगम के अनुसार चार प्रकार का कर्म उपचय (बंध) को प्राप्त नहीं होता है । नियुक्तिकार ने नियुक्ति में तथा टीकाकार ने टीका में भी स्पष्ट किया है कि भिक्षु समय (शाक्य आगम) में चार प्रकार के कर्मों का उपचय नहीं होता । ' ये चार कर्म इस प्रकार है
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1. अविज्ञोपचित कर्म - अविज्ञा अर्थात् अविद्या । अज्ञान के वश भूल हुआ कर्म अविज्ञोपचित कर्म कहलाता है । भूल से जीव की हिंसा आदि होने पर कर्म का उपचय नहीं होता ।
2. परिज्ञोपचित कर्म - जो कोपादि कारणवश केवल मनोव्यापार से प्राणी
280 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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