________________
आत्म-निवेदन आज शोध ग्रन्थ की पूर्णता के सुनहरे पलों में मैं अनहद आनन्द की अनुभूति कर रही हूँ। वर्षों का संजोया सपना आज यथार्थ की धरती पर उतर रहा है। नि:सन्देह ये क्षण मेरे जीवन की एक विशिष्ट उपलब्धि के क्षण है। मेरे आनन्द का कारण यह नहीं है कि मेरे नाम के साथ एक डिग्री जुड़ रही है अपितु यह है कि मैंने परमात्मा महावीर की मूल आगम-वाणी को अपने स्वाध्याय का विषय बनाकर उसकी अतल गहराई में जाकर रहस्यों के मोती बटोरने का कुछ प्रयास किया है।
परमात्मा महावीर का साधनापक्ष एवं ज्ञानपक्ष दोनों ही एक-दूसरे के पूरक है। साधनापक्ष उनकी सहिष्णुता को अभिव्यंजित करता है तो ज्ञानपक्ष उनकी सहज करूणा को व्यक्त करता है।
जिस समय परमात्मा महावीर इस धरा पर अवतरित हुए थे, उस समय अनेकानेक विषमताएँ उस युग का अभिशाप बनी हुई थी। हिंसा, कदाग्रह, दुराग्रह, पूर्वाग्रह, वैचारिक असहिष्णुता, सामाजिक विषमता आदि विभिन्न स्तरों पर आम जनता अपने उच्चतम मानवीय जीवन को बलि का बकरा बना रही थी। असन्तोष तीव्रता से जन-मानस को संतप्त कर रहा था।
समाज का मार्गदर्शक ब्राह्मण समाज अपने कर्तव्यों से च्युत होकर भूले भटकों का पथ-प्रदर्शन करने की अपेक्षा अपनी स्वार्थी प्रवृत्तियों के पोषण में ही डूब गया था। त्यागी साधु-संन्यासी वर्ग या तो समाज पर अपनी पकड़ खो चुका था, या अपनी ही सतही एकान्त-वादी मान्यताओं में उलझकर अनुयायियों को दिग्भ्रमित कर रहा था। निःसन्देह ऐसे आर्थिक, सामाजिक, वैचारिक व व्यवहारिक विषमताओं के बारूद पर खड़े मानव समाज को एक ऐसे महापुरुष की अपेक्षा थी जो उनकी समस्त पीड़ाओं को अपने महान् आचार और विचार में समेट सके, उन्हें यथार्थ मार्गदर्शन देकर सत्य मार्ग की
xxiii
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org