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परन्तु ऐसा नहीं है । संसार में हम विविध विचित्रताओं का अनुभव करते है, जो प्रत्यक्षदृष्ट है । इसलिये नियतिनामक पदार्थ का एकतन्त्रीय शासन नहीं माना
जा सकता।
नियतिवादियों का यह कथन कि क्रियावादी और अक्रियावादी दोनों ही नियति के अधीन है, अत: उनमें कोई भेद नहीं है, यह कथन भी प्रतीतिबाधित है । क्योंकि क्रियावादी क्रियावाद का समर्थन करता है, जबकि अक्रियावादी अक्रियावाद का । इसलिये इनकी भिन्नता स्पष्ट होने से किसी भी प्रकार की तुल्यता नहीं हो सकती। यदि ऐसा कहे कि ये दोनों नियति के अधीन होने के कारण तुल्य है, तो यह भी युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि नियति की सिद्धि किये बिना इन दोनों का नियति के वश होना सिद्ध नहीं होता। अत: क्रियावादी तथा अक्रियावादी को नियति के द्वारा संचालित कहना असमीचीन है ।
शास्त्रकार कहते है कि ये नियतिवादी मिथ्याभिनिवेशी है, जो नियति को ही सब कुछ मानकर चारों प्राणातिपात आदि का आरम्भ करते है । तथा क्रियाअक्रिया, सुकृत- दुष्कृत, कल्याण- पाप, साधु-असाधु आदि का कोई विचार नहीं करते। इस प्रकार वे नाना प्रकार के कामभोगों में गृद्ध व आसक्त होकर संसार-चक्र के परिभ्रमण रूप दुःख को भोगते रहते है ।
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सन्दर्भ एवं टिप्पणी
सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र
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उपासक दशांग, अध्ययन - सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र
393:
'स एवं गोशालकमतानुसारी त्रैराशिक निराकृतः । पुनः अन्येन प्रकरणेन आह ।' समवायवृत्ति (अभयदेव) पृ. - 130 - : तं एव च आजीविका त्रैराशिका भणिताः । हलायुधकोश, द्वितीय काण्ड - रजोहरणधारी च श्वेतवासाः सिताम्बरः 1344 ॥ नग्नाटो दिग्वासा क्षपण: श्रमणश्च जीवको जैनः ।
आजीवो मलधारी निर्ग्रन्थः कथ्यते सद्भिः ॥ 345 ।।
जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग 1, पृ. - 175-176
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सूयगडो, 1/1/2/1-5
सू. शी. वृ. प. 30
महाभारत, आदिपर्व - अ. 1, 273-275
काल: पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः ।
278 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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