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जाते है और अपने आप को दु:खों से मुक्त नहीं कर पाते।
सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम पौण्डरीक अध्ययन में भी नियतिवाद का वर्णन हुआ है। पुण्डरीक कमल प्राप्त करने के अभिलाषी चार पुरुषों में चौथा पुरुष नियतिवादी है।
प्रथम श्रुतस्कन्ध में नियतिवाद का वर्णन नामोल्लेखपूर्वक नही है, जबकि द्वितीय श्रुतस्कन्ध में 'णियइवाइए' नियतिवाद का नामोल्लेखपूर्वक विश्लेषण है। - यहाँ नियतिवादी इस प्रकार कथन कहते है कि इस लोक में दो प्रकार के पुरुष होते है- क्रियावादी तथा अक्रियावादी। ये दोनों ही नियति के अधीन है। नियति की प्रेरणा से ही क्रियावादी क्रिया का समर्थन करता है तो अक्रियावादी अक्रिया का। इसलिये इन दोनों में कोई भेद नहीं किया जा सकता। क्योंकि इन दोनों का कारण एक है और वह है नियति।
नियतिवादी ऐसा मानते है कि मुझे जो सुख-दुःख, संताप आदि मिल रहा है वह सब नियति का ही प्रभाव है। चूंकि मेरा सुख-दु:ख मेरे द्वारा कृत नहीं है एवं दूसरे का सुख-दुःख भी उसके द्वारा कृत नहीं है अत: सब कुछ नियतिकृत है। परन्तु अज्ञ जीव (पुरुषार्थवादी आदि) उसे स्वकृत मानकर दु:खी होता है।
नियतिवादियों की दृष्टि में नियतिवाद का स्वीकार करने वाला 'मेहावी' तथा अस्वीकार करने वाला बाल होता है।
वास्तव में एकान्त नियतिवाद युक्तिसंगत नहीं है। वृत्तिकार ने नियतिवाद की विप्रतिपत्ति बतलाते हए लिखा है - क्या नियति अपने आप ही नियति स्वभाव वाली है या यह दूसरी नियति से नियंत्रित-संचालित होती है। यदि यह तथास्वभाव वाली है, तो सभी पदार्थों को तथा-स्वभाव वाला मानने में क्या आपत्ति है ? अर्थात् पदार्थों को अपने-अपने स्वभाव में नियत करने के लिये नियति नामक किसी दूसरे पदार्थ की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि यह माना जाय कि नियति दुसरी नियति से नियन्त्रित है तो फिर दूसरी नियति तीसरी नियति से और तीसरी चौथी से नियंत्रित होगी। यह क्रम अनवरत चलता रहेगा, जिसका कहीं अन्त नहीं होगा। इस स्थिति में यहाँ अनवस्था दोष का प्रसंग उपस्थित होगा।25
यदि यह कहा जाय कि नियति का एक ही स्वभाव है, भिन्न-भिन्न स्वभाव नहीं है, तो फिर उसका कार्य भी एक रूप ही होना चाहिये, भिन्न-भिन्न नहीं।
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 277
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