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________________ ? जिसने जिसकी हत्या की, उसका उसके हाथ से वैसा होना ही था। जिसे हत्या के अपराध में पकड़ा जाता है, वह भी जब नियति के परवश था, तब उसका स्वातंत्र्य कहाँ है, जिससे उसे हत्या का कर्ता कहा जाए। इस प्रकार : के नियतिवाद से तो जगत् में सारी व्यवस्थाएँ ही चौपट हो जायेगी और चोरी, हत्या आदि अपराध की वृत्तियों के लिए व्यक्ति जिम्मेदार न होकर नियति ही जिम्मेदार होगी। ___ अतः स्पष्ट है कि जगत् में सारे सुख-दु:ख नियतकृत नहीं होते। कुछ सुख-दु:ख अवश्य नियतिकृत होते है व उन-उन सुख दुःखादि कर्मों का अबाधाकाल समाप्त होने पर अवश्य उदय होता है, जैसे निकाचित कर्म का। परन्तु कई सुख-दु:ख अनियत (नियतिकृत नहीं) भी होते है। वे पुरुष के पुरुषार्थ, काल, स्वभाव, ईश्वर और कर्म आदि के द्वारा किये हुए होते है। अत: सुख-दुःख का कारण मात्र नियति नहीं अपितु काल, स्वभावादि सभी मिलकर ही कारण होते है। जैन दर्शन के अनुसार पंचसमवाय से कार्य की निष्पत्ति आचार्य सिद्धसेन ने सन्मति तर्क में कहा है- 'कालो सहाव नियई'- काल, स्वभाव, नियति, अदृष्ट (कर्म) और पुरुषार्थ ये पंचसमवाय है। इनके सम्बन्ध में एकान्त कथन मिथ्यात्व है और परस्पर सापेक्ष कथन ही सम्यकत्व है।22 जैन दर्शन में सुख-दु:ख आदि को कथंचित उद्योग साध्य भी माना गया है। क्योंकि जिस क्रिया से फल की निष्पत्ति होती है, वह क्रिया उद्योगाधीन है। जैसा कि कहा है - जो भाग्य में लिखा है, वही होगा। ऐसा सोचकर व्यक्ति को अपना पुरुषार्थ नहीं त्यागना चाहिए। बिना पुरुषार्थ के तिलों से तेल कौन · प्राप्त कर सकता है? नियतिवादियों ने काल, स्वभाव, पुरुषार्थ, ईश्वर और कर्म को युक्तिरहित सिद्ध करने के लिए जिन प्रश्नों को उपस्थित किया है, उन समस्त प्रश्नों का जैन दर्शन तर्कसंगत समाधान प्रस्तुत करता है। पुरुषार्थ की समानता होने पर भी फल की विचित्रता को नियतिवादी दोषपूर्ण मानते है, परन्तु वास्तव में यह दोषपूर्ण नहीं है। क्योंकि पुरुषार्थ का वैचित्र्य भी फल की विचित्रता का कारण होता है। एक समान उद्यम होने पर भी किसी को फल नहीं मिलता, वह उसके अदृष्ट (कर्म) का फल है। जैन दर्शन में अदृष्ट (कर्म) को भी सुख-दुःख का कारण माना जाता है। इसी प्रकार काल भी सुख-दु:ख का कर्ता है, क्योंकि सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 275 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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