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________________ नियतिवादी मानते है कि अकृत का फल नहीं होता। मनुष्य जो फलभोग करता है, उसके पीछे कर्तृत्व अवश्य है, किन्तु वह कर्तृत्व मनुष्य का नहीं है। यदि मनुष्य का कर्तृत्व हो, वह क्रिया करने में स्वतन्त्र हो तो वह सब कुछ मनचाहा करेगा। उसे जो इष्ट नहीं है, वह फिर क्यों करेगा? किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता। मनुष्य बहुत सारे अनिप्सित कार्य भी करता है। इससे सिद्ध होता है कि सब कुछ नियति करती है। बौद्ध ग्रन्थ मज्झिमनिकाय के सामञफलसुत्त में आजीवकमत-प्रवर्तक मंखली गोशालक के नियतिवाद का उल्लेख इस प्रकार हआ है- सत्वों के क्लेश (दु:ख) का हेतु नहीं है, कोई प्रत्यय नहीं है। बिना हेतु और प्रत्यय के ही सत्व (प्राणी) क्लेश पाते है। बिना हेतु और प्रत्यय के ही सत्व शुद्ध होते है। न वे स्वयं कुछ कर सकते है, न पराये कुछ कर सकते है। पुरुषार्थ (पुरुषकार) नहीं है, बल नहीं है, वीर्य नहीं है, पुरुष का साहस नहीं है और न पुरुष का कोई पराक्रम है। समस्त सत्व, समस्त प्राणी, सभी भूत और सभी जीव अवश (लाचार) है, निर्बल है, निर्वीर्य है, नियति के संयोग से छह जातियों में (उत्पन्न होकर) सुख-दुःख भोगते है। जिन्हें मूर्ख और पण्डित जानकर और अनुगमन कर दु:खों का अन्त कर सकते है। वहाँ यह नहीं है कि इस शील, व्रत, तप या ब्रह्मचर्य से मैं अपरिपक्व कर्म को परिपक्व कर लूँगा। परिपक्व कर्म को भोगकर अन्त करूँगा। सुख और दुःख तो द्रोण (माप) से (नपेतुले) नियत है। संसार में न्यूनाधिक उत्कर्ष या अपकर्ष नहीं है। जैसे सूत की गोली फेंकने पर खुलती हुई गिर पड़ती है, वैसे ही मूर्ख और पण्डित दौड़कर, आवागमन में पड़कर दु:ख का अन्त करेंगे।" नियतिवाद का खण्डन नियतिवाद के एकान्त तथा युक्तिहीन सिद्धान्त का खण्डन करते हुये शास्त्रकार कहते है कि नियतिवादी हठाग्रही और पण्डितमानी है। 'बाला' शब्द इसलिये प्रयुक्त किया गया है कि वे अज्ञ एवं नासमझ बालकों जैसी बचकानी बातें करते है। नियति की निश्चितता न केवल कर्त्तव्यभ्रष्ट करती है अपितु पुरुष के अनन्त बल, वीर्य, पराक्रम, उत्थान और पौरुष को भी समाप्त कर देती है। जब जगत् के प्रत्येक पदार्थ की व्यवस्थाएँ निश्चित है और सब अपनी नियति की पट्टी पर दौड़ते जा रहे है, तब शास्त्रोपदेश, शिक्षा, दिक्षा और उन्नति, उपदेश तथा प्रेरणाएँ, सब कुछ व्यर्थ है। इस नियतिवाद में क्या सदाचार और क्या दुराचार 274 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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