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________________ में दो चेतन मानने का दोष आयेगा। यदि कर्म अचेतन है, तो पाषाण खण्ड के समान परतंत्र होने से सुख-दु:ख कर्ता कैसे हो सकेगा ? - इस व्याख्या से यह सिद्ध होता है कि काल, स्वभाव, ईश्वर और कर्म - ये सब सुख-दु:ख के कर्ता नहीं हो सकते। एकमात्र नियति ही जगत के समस्त पदार्थों का कारण हो सकती है। नियतिवाद का स्वरूप शास्त्रकार ने गाथात्रयी में नियतिवाद के स्वरूप को स्पष्ट किया है, विस्तृत विश्लेषण वृत्तिकार ने प्रस्तुत किया है। सूत्रकार नियतिवाद या नियति शब्द का उल्लेख न कर 'संगइअंतं' इसे सांगतिक कहते है। वृत्तिकार' ने इसकी व्याख्या इस प्रकार प्रस्तुत की है - सम्यक् अर्थात् अपने परिणाम से जो गति है, उसे संगति कहते है। जिस जीव को, जिस समय, जहाँ जिस सुख-दु:ख को अनुभव करना होता है, वह संगति कहलाती है। वही नियति है। इस नियति से सुख-दु:ख उत्पन्न होता है, उसे सांगतिक कहते है। जैसे कि शास्त्रवार्ता समुच्चय में कहा गया है- चूंकि संसार के सभी पदार्थ अपने-अपने नियत स्वरूप से उत्पन्न होते है। अत: यह ज्ञात होता है कि ये सब नियति से उत्पन्न हए है। यह समस्त चराचर जगत् नियति तत्व से गुंथा हुआ है। उससे तादात्म्य होकर वे नियतिमय हो रहे है। जिसे, जिससे, जिस समय, जिस रूप में होना है, वह उससे, उसी समय, उसी रूप में उत्पन्न होता है। इस तरह अबाधित प्रमाण से सिद्ध इस नियति के स्वरूप को कौन रोक सकता है ? यह सर्वत्र निर्वाध है।'' नियतिवादी कहते है कि नियति एक स्वतन्त्र तत्त्व है, जिससे सभी पदार्थ नियत रूप से उत्पन्न होते है, अनियत रूप से नहीं। यदि नियति तत्त्व न हो तो संसार से कार्य-कारण भाव की तथा पदार्थों के अपने निश्चित स्वरूप की व्यवस्था ही उठ जायेगी। यदि इस प्रतीति सिद्ध वस्तु का लोप होता है, तो संसार से प्रमाण मार्ग ही उठ जायेगा जैसा कि वे कहते है - नियति के बल से शुभाशुभ जो कुछ भी मिलने वाला होता है, वह मनुष्य को अवश्य प्राप्त होता है। किन्तु जो होनहार नहीं है, वह महान् प्रयत्न करने पर भी नहीं होता और जो होनहार है, वह टल भी नहीं सकता।' सूत्रकृतांग चूर्णिकार ने नियतिवादियों के एक तर्क का उल्लेख किया है। सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 273 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ww
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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