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इसी प्रकार बौद्धमतवादी आत्मा को न तो सहेतुक, न अहेतुक आत्मा मानते है। इस मत को शास्त्रकार ने हेउयं च अहेउयं च' इस पद के द्वारा सूचित किया है।
क्षणिकवादी चातुर्धातुकवाद - इसी क्रम में शास्त्रकार ने क्षणिकवाद के दूसरे रूप चातुर्धातुकवादियों के मत का उल्लेख किया है। वृत्तिकार के अनुसार यह मत भी कतिपय बौद्धों का है।'
चातुर्धातुकवाद का स्वरूप मज्झिमनिकाय के अनुसार निम्न प्रकार से है - 10 जगत् में पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चार धातु ही सर्वस्व है। ये चारों जगत् का धारण-पोषण करने से धातु कहलाते है। इन चारों से जगत् की उत्पत्ति होती है। ये ही एकाकार होकर जब शरीर रूप में परिणत होते है, तब इनकी जीवसंज्ञा होती है। अर्थात् इनसे भिन्न आत्मा नहीं है। इन्हीं के समुदाय को आत्मा का नाम दिया जाता है। वे कहते है- 'चातुर्धातुकमिदं शरीरं, न तदत्यतिरिक्तं आत्मा।' चतुर्धातुओ का सम्मेलन ही शरीर है। इनसे भिन्न कोई आत्मा नहीं है। यह भूतसंज्ञक रूप स्कन्धमय होने के कारण पंचस्कन्धों की तरह क्षणिक है। अत: चातुर्धातुकवाद भी क्षणिकवाद का ही एक रूप है।
किसी-किसी प्रति में गाथोक्त 'आवरे' के स्थान पर 'जाणगा' ऐसा पाठ उपलब्ध होता है, ऐसा उल्लेख वृत्तिकार ने किया है।'' 'जाणगा' अर्थात् 'हम जानकार है' । बौद्ध मतवादियों के इस कथन से यह प्रतीत होता है कि वे अभिमान की अग्नि से दग्ध है, जो इस प्रकार अपने ज्ञान का प्रदर्शन करते हुए कहते है कि चतुर्धातुओं से उत्पन्न शरीर से भिन्न कोई आत्मतत्व नहीं है। अफलवादी बौद्धों के मत का निरसन
वृत्तिकार ने बौद्धों के क्षणिकवाद एवं पूर्वोक्त सांख्यवेदान्ती सभी मतानुयायियों को अफलवादी कहा है। इनमें से किन्हीं (सांख्यादि) के मत में आत्मा नित्य, अमूर्त, सर्वव्यापी तथा अकर्ता है, उनके मतानुसार विकारहीन, निष्क्रिय आत्मा में कर्तृत्व या फल भोक्तृत्व कैसे सिद्ध हो सकता है ?
कूटस्थ-नित्य, क्रिया से रहित आत्मा में किसी प्रकार की कृति नहीं होती। कृति के अभाव में कर्तृत्व नहीं होता और कर्तृत्व के अभाव में क्रिया का सम्पादन करना कैसे सम्भव होगा ? ऐसी स्थिति में सुख-दु:ख रूप क्रिया का भोग नहीं होगा। जो सर्वथा एक स्वभाव वाला है, उदासीन और प्रपंच रहित है, वह कर्ता
264 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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