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या भोक्ता नहीं हो सकता ।
कुछ मतवादी पंचस्कन्धों या पंचभूतों से भिन्न आत्मा नहीं है, ऐसा कहते है । यदि आत्मा का अभाव है, तो सुख-दुःखादि का अनुभव कैसे होगा और कौन करेगा ?
क्षणिकवादियों के मतानुसार क्रिया करने के क्षण में ही कर्ता (आत्मा) का समूल विनाश हो जाता है। अत: उसका क्रिया से कोई सम्बन्ध नहीं होता । जब फल प्राप्ति तक आत्मा रहता ही नहीं, तो इहलोक - परलोक सम्बन्धित फल का भोक्ता कौन होगा ? चूँकि इनके मत में पदार्थ मात्र क्षणिक है, आत्मा भी क्षणिक है और दानादि क्रियाएँ भी क्षणिक है, अतः समस्त वस्तुओं के क्षणिक होने से किसी क्षण की क्रिया फल दिये बिना ही अतीत के गर्भ में विलीन हो जाती है।
यदि यह कहे कि सुख-दुःखात्मक क्रियाफल का भोग विज्ञानस्कन्ध करता है, तो यह भी युक्तिसंगत नहीं है । क्योंकि विज्ञानस्कन्ध भी तो क्षणिक है और ज्ञानक्षण अति सूक्ष्म होने के कारण उसमें सुख-दुःख का अनुभव नहीं हो सकता । इसी प्रकार क्रियावान् को क्षण - विनश्वर मानने से क्रियावान् और फलवान् में समय का काफी अन्तर हो जायेगा । इस कारण जो पदार्थ क्रिया करता है। और जो उसके फल को भोगता है, इन दोनों में भेद हो जायेगा। कर्त्ता और भोक्ता का परस्पर अन्यन्त भेद कृतप्रणाश और अकृताभ्यागम दोषों को उत्पन्न करेगा । यदि कहे कि ज्ञान - सन्तान (ज्ञान की परम्परा) एक है, इसलिये जो ज्ञानसन्तान क्रिया करता है, वही उसका फल भोगता है । अत: पूर्वोक्त दोष नहीं आते तो यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि वह ज्ञान - सन्तान भी प्रत्येक ज्ञानों से भिन्न नहीं है। अत: उस ज्ञान - सन्तान से भी कुछ फल नहीं है ।
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यदि ऐसा कहे कि पूर्व क्षण उत्तर-क्षण में अपनी वासना को स्थापित करके नष्ट होता है, जैसाकि कहा है - जिस ज्ञान - सन्तान में कामवासना स्थित रहती है, उसी में फल उत्पन्न होता है। 12 जिस कपास में लाली होती है, उसी में फल उत्पन्न होता है, तो यहाँ भी विकल्प पैदा हो जायेगा कि वह वासना उस क्षणिक पदार्थ से भिन्न है या अभिन्न है ? यदि भिन्न है, तो वह वासना उस क्षणिक पदार्थ को वासित नहीं कर सकती। यदि अभिन्न है, तो उस क्षणिक पदार्थ के समान वह भी क्षण-क्षयिणी है ।
अतः आत्मा के न होने पर सुख-दुःख का भोग नहीं हो सकता । परन्तु सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 265
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