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सकता । एकान्त कथन वस्तु के एकपक्ष को ही व्यक्त करता है, सम्पूर्ण स्वरूप को नहीं।
सत्कार्यवाद असत् की उत्पत्ति को सर्वथा असिद्ध करने का प्रयास करता है। यदि असत् की उत्पत्ति कथंचित् न माने तो पूर्वभव का त्याग कर उत्तरभव की उत्पत्ति रूप जो आत्मा की चतुर्गति तथा पंचम मोक्षगति बताई है, वह कैसे सम्भव होगी? आत्मा को अप्रच्युत, अनुत्पन्न, स्थिर, अचल एवं नित्य मानने पर उसका मनुष्य, देवादि गतियों में गमना-गमन असम्भव होगा तथा स्मृति का अभाव न होने से जातिस्मरण भी नहीं हो सकेगा। अत: आत्मा को एकान्त नित्य कहना सर्वथा मिथ्या है। इसी प्रकार सत् की ही उत्पत्ति होती है, यह एकान्त कथन भी दोषपूर्ण है। यदि वह (कार्य) पहले से ही सर्वथा सत् है, तो फिर उत्पत्ति कैसे ? और उत्पत्ति होती है, तो सर्वथा सत् कैसे ? इसलिये कहा
गया है -
कर्मगुणव्यपदेशा: प्रागुत्पत्तेर्न सन्ति यत्तस्मात्।
कार्यमसद्विज्ञेयं, क्रिया प्रवृत्तेश्च कर्तृणाम् ॥ न्याय सिद्धान्त अर्थात् जब तक घटादि कार्य की उत्पत्ति नहीं होती, तब तक उनके द्वारा जलधारण या जलानयन कार्य सम्पन्न नहीं किये जा सकते तथा उनके गुण भी नहीं पाये जाते। उन्हें घटादि रूप में तभी सम्बोधित किया जाता है, जब वे जलधारण के घटत्व गुण से युक्त हो जाये। मृत्पिण्ड से न जल लाया जा सकता है, न जलधारण किया जा सकता है। मृत्पिण्ड घट का उपादान कारण होने पर भी जब तक वह घटत्व के गुणों से परिपूर्ण नहीं होता, तब तक मिट्टी के पिण्ड को कोई घड़ा नहीं कहता। घट निर्माण की आवश्यकता घट न होने पर ही होती है, घट बन जाने पर नहीं। अत: घट रूप कार्य को उत्पत्ति से पूर्व असत् ही समझना चाहिये।
विमर्शणीय है कि प्रत्येक कार्य उत्पत्ति से पूर्व असत् ही होता है। उत्पत्ति होते ही वह कार्य सत् कहलाता है। अत: आत्मा आदि पदार्थ कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य, कथंचित् सत, कथंचित् असत् है। आत्माषष्ठवादी उसे सदसत्कार्यवाद न मानकर एकान्त सत्कार्यवाद का ही राग आलापते है। यह एकान्त आग्रह ही मिथ्यात्व है।
__ अनेकान्तवाद जैन दर्शन का प्राण है। अनेकान्तवाद की मजबूत और सुदृढ़ नींव पर ही जैन दर्शन का विराट महल टिका हुआ है। सूत्रकृतांग में षट्पदार्थवादियों
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 259
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