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जाती है ? गेहूँ, जौ, चना, घट, पट भी बनाये जाते। अत: प्रत्येक कार्य अपने नियत उपादान में ही रहता है। बालु से तेल निकल नहीं सकता। तेल की प्राप्ति के लिये तिल की ही अपेक्षा होगी।
(4) शक्तस्यशक्यकरणात् - मनुष्य शक्त (शक्ति सम्पन्न) से जो शक्य हो, उसे ही करता है। कर्ता द्वारा अशक्य पदार्थ बनाने पर असत् की उत्पत्ति का प्रश्न भी आ पड़ेगा, जो कि सम्भव नहीं है। चूंकि असत् की उत्पत्ति नहीं होती, अत: कर्ता भी शक्ति द्वारा जो साध्य शक्य हो, वही करता है।
(5) कारणभावाच्च सत्कार्यम् - 'कार्य कारण के समान होता है' यह हेतु भी सिद्ध करता है कि कार्य उत्पत्ति से पूर्व कारण में अव्यक्त रूप से विद्यमान रहता है। योग्य या उपादान कारण में स्थित (सत्) पदार्थ की ही उत्पत्ति होती है। जैसे आम के बीज से आम की ही उत्पत्ति होती है, बबूल की नहीं। यदि कारण में स्थित कार्य उत्पन्न नहीं होता है, तो आम के बीज से बबूल पैदा होने का दोष आ पड़ेगा। वस्तुत: कारण और कार्य एक ही वस्तु की विभिन्न अवस्थाओं के भिन्न नाम है। व्यक्त दशा कार्य है, जो घट रूप है। अव्यक्त दशा कारण है, जो मृत्पिण्ड रूप है।
उपर्युक्त सत्कार्यवाद पंचयुक्तियों द्वारा पंचमहाभूत तथा आत्मा, इन छहों की नित्यता सिद्ध करने का प्रयास करता है। ये छ: पदार्थ पहले अभाव रूप थे, फिर भाव रूप हो गये हो. ऐसा नहीं है।
निष्कर्ष यही निकलता है कि सत्यकार्यवाद में उत्पत्ति तथा विनाश केवल आविर्भाव तिरोभाव के अर्थ में है। न तो किसी वस्तु की उत्पत्ति होती है, न विनाश । वह अपने स्वरूप में सदैव विद्यमान रहती है। कर्ता के व्यापार से वस्तु का आविर्भाव मात्र होता है। अव्यक्त वस्तु व्यक्त रूप में प्रकट होती है। आत्मषष्ठवाद के एकान्त नित्यत्व का खण्डन
आत्मषष्ठवादियों का एकान्त नित्यवाद यथार्थ नहीं है, क्योंकि समस्त पदार्थों को एकान्त नित्य मानने पर आत्मा में कर्तृत्व परिणाम नहीं हो सकेगा। कर्तृत्व परिणाम के अभाव में कर्मबंध कैसे होगा ? कर्मबंध न होने पर उसके सुख-दु:ख रूप फल का भोग कौन करेगा ? इस प्रकार आत्मा को अकर्ता मानने पर कर्मबंध का सर्वथा अभाव हो जायेगा।
जैन दर्शन के अनुसार कोई भी पदार्थ एकान्त नित्य या अनित्य नहीं हो
258 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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