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व्याप्त होता है। अन्तत: तण मात्र कार्य भी उन्हीं से होता है। (उक्त सिद्धान्त को माननेवाला) स्वयं क्रय करता है, दूसरों से करवाता है, स्वयं पकाता है, दूसरों से पकवाता है और अन्तत: मनुष्य को भी बेचकर या मारकर कहता है - इसमें भी दोष नहीं है- ऐसा जानो।
भगवद्गीता में आत्मा की अनश्वरता और नित्यता स्पष्टत: उल्लिखित है- इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, पानी भिगों नहीं सकता, हवा सूखा नहीं सकती। अत: आत्मा अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्य, अविकारी, नित्य, सर्वव्यापी, स्थिर, अविचल, और सनातन (शाश्वत) कहलाती
है।'
असत् पदार्थ की कभी उत्पत्ति नहीं होती। सर्वत्र सत् पदार्थ की ही उत्पत्ति देखी जाती है। इस कथन में सांख्य दर्शन सत्कार्यवाद के द्वारा आत्मा तथा लोक की नित्यता की सिद्धि करता है, क्योंकि जो पदार्थ असत् है, उसमें कर्ता, करण आदि कारकों का व्यापार नहीं होता। सत् पदार्थ में ही ऐसा सम्भव होता
सत्कार्यवाद की सिद्धि में निम्न पाँच कारण अपेक्षित है -
(1) असदकरणात् - जो वस्तु है ही नहीं, ऐसी अविद्यमान वस्तु कथमपि उत्पन्न नहीं की जा सकती। यदि कारण में कार्य की सत्ता वस्तुत: नहीं होती, तो कर्ता के कितने भी प्रयास करने पर उसमें कार्य उत्पन्न हो नहीं सकता। जैसे खरविषाण, शशशृंग या आकाशपुष्प का अस्तित्व ही नहीं है, उसे कैसे बनाया जा सकता है ?
(2) उपादानग्रहणात् - जो वस्तु सत् है, उसी वस्तु का उपादान विद्यमान होता है। कर्ता किसी वस्तु को बनाने के लिये उपादान को ही ग्रहण करता है। मृत्तिका में घट अवश्यमेव अव्यक्त रूप से विद्यमान रहता है। कुम्हार घट को बनाने की इच्छा से उसके उपादान कारण मृत्पिण्ड को ही ग्रहण करता है। इन व्यावहारिक दृष्टान्तों से कार्य-कारण का सम्बन्ध नियत है। अत: स्पष्ट है कि विद्यमान उपादान से ही सत की उत्पत्ति होती है। यदि ऐसा न होता तो कोई भी कार्य किसी भी कारण से उत्पन्न होता दिखाई पड़ता, तब मिट्टी से कपड़ा भी बन जाता परन्तु प्रत्यक्ष जगत में ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता।
(3) सर्वसम्भवाभावात् - सब कारणों से सब कार्यों की सिद्धि कभी नहीं होती। यदि ऐसा सम्भव होता तो वृक्ष की लकड़ी से पुतली ही क्यों बनायी
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 257
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