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________________ विनाश का कारण भी उत्पत्ति के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। जो पदार्थ उत्पन्न होते ही नष्ट न हुआ, वह बाद में किस कारण नष्ट होगा, अत: उत्पत्ति के अनन्तर ही पदार्थ विनष्ट हो जाता है।' आत्मषष्ठवादी इस अकारण विनाश को नहीं मानते, और न ही वैशेषिक दर्शन सम्मत डण्डे, लाठी के प्रहार से सहेतुक (सकारण) विनाश को मानते है। उनकी प्रबल मान्यता है कि सकारण तथा अकारण दोनों ही प्रकार से आत्मा तथा लोक का नाश नहीं होता। _ 'दुहओ वि' पद का सम्भवित अर्थ यह भी हो सकता है कि पृथ्वी आदि पंचभूत अपने अचेतन स्वभाव से तथा आत्मा अपने चैतन्य स्वभाव से कभी च्युत या नष्ट नहीं होते, अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते, अत: आत्मा तथा लोक नित्य ही है। ___ आत्मा किसी के द्वारा कृत नहीं होने से अकृत है, निर्मित नहीं होने से अनिर्मित है, इत्यादि हेतुओं से भी नित्य है। अकृत, अनिर्मित और अवन्ध्यनित्यवाद की सूचना देनेवाले ये तीनों शब्द जैन और बौद्ध, दोनों की साहित्य परम्पराओं में समान है। पंचमहाभूत और सात काय- ये दोनों भिन्न पक्ष है। इस भेद का कारण पकूधकात्यायन की दो विचार शाखाएँ हो सकती है और यह भी सम्भव है कि जैन और बौद्ध लेखकों को दो भिन्न अनुश्रुतियाँ उपलब्ध हुई हो। प्रस्तुत आत्मषष्ठवाद पकूधकात्यायन के दार्शनिक पक्ष की दूसरी शाखा है। इसकी सम्भावना की जा सकती है कि पकधुकात्यायन के कुछ अनुयायी केवल पंचमहाभूतवादी थे। वे आत्मा का अस्वीकार करते थे। और कुछ अनुयायी पंचमहाभूत के साथ छठा आत्म-तत्त्व भी स्वीकारते थे। वह स्वयं भी आत्मा को स्वीकार करता था। सूत्रकार ने उसकी दोनों शाखाओं को एक ही प्रवाद में प्रस्तुत किया है। इसी आधार पर उक्त सम्भावना की जा सकती है। पकुधकात्यायन भूतों की भाँति आत्मा को भी कूटस्थनित्य मानता था। आत्मषष्ठ-वाद का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में भी उपलब्ध होता है। आत्मषष्ठवादी मानते है - ....... सत् का नाश नहीं होता, असत् का उत्पाद नहीं होता, इतना ही (पंचमहाभूत या प्रकृति) जीवकाय है। इतना ही अस्तिकाय है। इतना ही समूचा लोक है और यही लोक का कारण है और यही सभी कार्यों में कारण रूप से 256 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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