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समीक्षा
सांख्य दर्शन में आत्मा का जो अमूर्त, अकर्ता, नित्य तथा निष्क्रिय स्वरूप माना गया है, वह प्रमाण, युक्ति तथा अनुभव की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। वे एक दोष को मिटाने के लिये सैकड़ों दूषणों का प्रयोग करते हुए नजर आते है। उनका मत एकान्त रूप होने से दूषित है, तथापि वे उसे सत्यता का चोला पहनाकर मिथ्या आग्रह का ही पोषण करते है। इस मिथ्यात्व के कारण वे यहाँ भी 25 तत्त्वों के ज्ञाता होने का झूठा अभिमान कर पाप कर्मोदय वश अज्ञान के गहरे अन्धकार में डूबे रहते है, तथा परलोक में भी दुर्लभबोधि होने से गाढतम अन्धकार में भटकते रहते है।
सन्दर्भ एवं टिप्पणी (अ). सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ.-27 : एगे णाम सांख्यादयः। (ब). सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 21 सांख्यकारिका, गा. 19 सांख्याकारिका, पृ. 89-90 (ब्रजमोहन चतुर्वेदी कृत अनुवाद) सांख्यकारिका, 20 तस्मात्तत्संयोगादचेतनं चेतनवदिव लिंगम्।
गुण कर्तृत्वेऽपि तथा कर्ते भवत्युदासीनः॥ सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 21 दीघनिकाय, 1/2/4/17 सांख्यकारिका तस्मान्न बध्यते अद्धा न मुच्यते नाऽपि संसरति कश्चित्। संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः। सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 34 को वेएई अकयं ? कयनासो पंचहा गइ नत्थि। देवमणुरसगयागइ जाइ सरणाझ्याणंइ च॥ सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 23 पंचविशंतितत्वज्ञो, यत्र तत्राश्रमेरतः।
जटीमुण्डीशिखी वापि, मुच्यते नात्र संशयः॥ सांख्यतत्त्वकौमुदी - अप्रच्युताऽनुत्पन्न-स्थिरैक स्वभाव: नित्यः।। (अ). सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 35 (ब). सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 23 सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 23 . सूत्रकृतांग सूत्र - 1/1/1/14
254 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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