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________________ यदि सांख्यमतवादी कहे कि 'दर्पण में प्रतिबिम्बित मूर्ति बाहर रहकर भी दर्पण में दिखाई देती है, इसी प्रकार आत्मा में न होता हुआ भोग भी आत्मा में प्रतीत होता है' यह कथन भी युक्ति विरूद्ध ही है। प्रतिबिम्ब का उदय भी तो एक प्रकार की क्रिया है। वह क्रिया विकार रहित नित्य आत्मा में कैसे हो सकती है ? ___कदाचित् वे यों कहे कि इस आत्मा को भोगक्रिया तथा स्थितिक्रिया मात्र से ही निष्क्रिय नहीं कहते बल्कि समस्त क्रियाओं से रहित होने पर ही निष्क्रिय कहते हैं, तो यह कथन भी न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि वृक्षाभाव के साध्य होने पर फलाभाव को हेतु नहीं बनाया जा सकता अर्थात् ऐसा नहीं होता कि वृक्ष फलवान हो तभी वृक्ष कहलाये और जब उसके फल न लगे हों तब उसमें वृक्षाभाव हो जाये या वह वृक्ष न कहलाये। इसी तरह सुप्त आदि अवस्थाओं में आत्मा कथंचित् निष्क्रिय होता है, इतने मात्र से उसे निष्क्रिय नहीं कहा जा सकता। नियुक्तिकार ने आत्मा की निष्क्रियता पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए कहा है कि जैसे अफलत्व, स्तोकफलत्व तथा अनिश्चितकालफलत्व- ये अद्रुम (वृक्षाभाव) के साधक हेतु नहीं है, अदुग्ध या स्तोकदुग्ध भी गोत्व का अभाव साधने वाले हेतु नहीं है, उसी प्रकार सुप्त, मूर्च्छित आदि अवस्था में कथंचित् निष्क्रिय होने पर भी आत्मा को अक्रिय नहीं कहा जा सकता।। यदि स्तोक (थोड़े) फल वृक्ष को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है, तो आत्मा की भोक्ता रूप स्वल्प क्रिया भी उसे अवश्य क्रियावान् सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है। कदाचित् सांख्यवादियों की बुद्धि यह तर्क उपस्थित करे कि स्वल्प क्रिया उसी प्रकार निष्क्रिय रूप है, जैसे एक कार्षापण धन निर्धनता रूप है क्योंकि इस स्वल्प धन से कोई भी व्यक्ति धनवान नहीं कहला सकता। यह कथन भी यथार्थ नहीं है, क्योंकि प्रतिनियत अर्थात् शत-सहस्त्राधिपति पुरुष की अपेक्षा से यदि कहा जाता है, तो यह अवश्य सत्य है कि वह निर्धन है, परन्तु निर्धन पुरुषों की अपेक्षा से वह धनवान भी है। जैसे जर्जर चीवरधारी की अपेक्षा एक कार्षापणवाला भी अधिक धनवाला ही माना जायेगा। इसी प्रकार विशिष्ट शक्ति वाले पुरुष की क्रिया की अपेक्षा से यदि आत्मा को क्रियारहित कहे, तो कोई हानि नहीं है, परन्तु सर्वसामान्य की अपेक्षा से यदि आत्मा को निष्क्रिय कहते हैं, तो यह बात असंगत है, क्योंकि सर्व-सामान्य की अपेक्षा से तो आत्मा क्रियावान ही सिद्ध होता है। सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 253 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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