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________________ जिस किसी आश्रम में रहे और वह जटी, मुण्डी अथवा शिखाधारी हो, मुक्ति को प्राप्त करता है, यह कथन भी निरर्थक हो जायेगा। इस प्रकार आत्मा में सर्वव्यापित्व गुण मानने से देव, मनुष्यादि गतियों में उसका गमनागमन भी नहीं हो सकेगा। सांख्यमतवादी आत्मा को एकान्त रूप से नित्य मानते है। नित्य अर्थात् जो विनष्ट न हो, उत्पन्न न हो, स्थिर हो, सदा एक स्वभाव वाला हो।" आत्मा केवल नित्य भी नहीं आत्मा को सदा एक स्वभाव वाला, अपरिवर्तनशील मानने पर जो बालक है, वह बालक ही रहेगा। जो मूर्ख है, वह मूर्ख ही रहेगा अर्थात् जो जैसा है, वह वैसा ही रहेगा। क्योंकि नित्य मानने पर न तो नये स्वभाव की उत्पत्ति होती है, न पुराना स्वभाव विनष्ट होता है। वह तो सदा एक-सा ही रहता है। अपरिवर्तनशील तथा स्थिर मानने पर पुण्य के फलस्वरूप देव, मनुष्यादि शरीर की प्राप्ति भी नहीं हो सकेगी। न मूर्ख विद्वान बन सकेगा, न अज्ञानी के ज्ञानी बनने की गुंजाइश रहेगी। ऐसी स्थिति में न त्रिविध दु:खों का सर्वथा नाश होगा, न ही मोक्षादि की प्राप्ति होगी। तथा कुटस्थनित्य ऐसा निष्क्रिय जडात्मा 25 तत्त्वों का ज्ञान भी कैसे प्राप्त कर सकेगा ? एवं उस आत्मा में विस्मृति के अभाव से जातिस्मरण (पूर्व जन्मों का स्मरण) आदि क्रिया भी कैसे सम्भव होगी ? आत्मा निष्क्रिय नहीं सांख्यमतवादी निष्क्रिय, अकर्ता आत्मा को भोक्ता मानते है, यह भी घटित नहीं होता क्योंकि यदि आत्मा निष्क्रिय है तो भोगने की क्रिया कैसे कर सकता है, फिर अकर्ता को फल का भोक्ता मानने से अकृतागम दोष आ पड़ेगा, जिससे कर्म कोई करेगा, भोगेगा कोई और। जैसे प्रकृति ने किया है पर फल उसे नहीं मिला यह स्पष्टत: कृतनाश दोष है। सांख्यवादी आत्मा को निष्क्रिय मानते हुये भी भोगने की क्रिया द्वारा भोक्ता बनाकर पुन: सक्रिय बना देते है यह तो वदतो व्याघात जैसा ही है। इसी प्रकार कर्मों का अकर्ता आत्मा से कर्मफलों का भोग करवाना भी प्रमाण से विरुद्ध है। यदि निष्क्रिय आत्मा भुजिक्रिया नहीं करता है, तो उसे भोक्ता कैसे कहा जा सकता है ? अनुमान प्रमाण से भी आत्मा का अभोक्तृत्व ही सिद्ध होता है। संसारी आत्मा भोक्ता नहीं हो सकता, क्योंकि वह भोगक्रिया नहीं करता, जैसे - मुक्त आत्मा। 252 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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