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________________ वही भोक्ता होता है परन्तु सांख्य मत में कर्ता प्रकृति को माना है, और भोक्ता पुरुष (आत्मा) को। यज्ञ, दानादि कार्य प्रकृति करती है और उन शुभ कार्यों के पुण्यफल का भोक्ता है चेतन पुरुष । इस प्रकार पुरुष के साथ कर्तृत्व-भोक्तृत्व का समानाधिकरणात्व छोड़कर प्रकृति को कर्तृत्व और पुरुष को भोक्तृत्व मात्र का व्यधिकरणत्व मानना, पहला विरोध है। पुरुष चैतन्यमय होने पर भी नहीं जानता, यह दूसरा विरोध है। पुरुष न बद्ध होता है, न मुक्त, और न ही भवान्तरगामी होता है। प्रकृति ही बद्ध और मुक्त होती है। नाना पुरुषों का आश्रय लेने वाली प्रकृति ही भवान्तरगामिनी होती है', यह सिद्धान्तविरूद्ध तथा अनुभवविरुद्ध कथन भी उनकी अज्ञानता ही है। अकृतागम तथा कृतप्रणाश दोष सांख्यमतवादियों की इस मिथ्या धारणा पर तीखा प्रहार करते हुये शास्त्रकार ने ‘एवं ते उ पगाब्भिया' कहकर उन्हें धृष्ट एवं मिथ्याभिनिवेश से ग्रस्त, असत्य प्रलाप करने वाला कहा है। आत्मा को अकारक (अकर्ता) मानने वाले सांख्यमतवादियों के सामने नियुक्तिकार ने अनेक आपत्तियाँ उठाई है कि जब आत्मा कर्म का कर्ता नहीं है और उसका किया हुआ कर्म नहीं है, तो अकृत (बिना किये) कर्म का वेदन या भोग कैसे करता है ? जब आत्मा स्वयं निष्क्रिय है, तो वेदन क्रिया कैसे सम्भव हो सकती है ? यदि कर्म किये बिना ही उसके फल की प्राप्ति मानी जाती है, तो इस प्रकार मानने से अकृतआगम तथा कृतनाश की दोषापत्तियाँ खड़ी होती है। फिर तो एक प्राणी के द्वारा किये गये पाप से सब प्राणियों को दु:खी और एक के किये हुए पुण्य से सबको सुखी हो जाना चाहिये। परन्तु यह न तो दृष्ट (प्रत्यक्ष तथा अनुभव से सिद्ध) है, और न ही इष्ट (सर्व आस्तिकों को अभीष्ट) है। आत्मा सर्वव्यापी नहीं ____आत्मा को यदि सर्वव्यापक माना जाता है, तो उसकी देव, नारक, मनुष्य, तिर्यंच तथा मोक्ष रूप पाँच प्रकार की गति भी नहीं हो सकेगी। ऐसी दशा में सांख्यवादी संन्यासी, जो कषायवस्त्र धारण, शिरोमुण्डन, दण्डधारण, भिक्षान्न भोजन तथा पंचरात्रोपदेश (ग्रन्थ) के अनुसार यम, नियमादि का पालन करते है, वे समस्त अनुष्ठान व्यर्थ हो जायेंगे तथा 'पच्चीस तत्त्वों का ज्ञाता पुरुष चाहे सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 25.1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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