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कारण अकर्ता सा है।
इसी प्रकार स्फटिक मणि के पास लाल रंग का जपा पुष्प रख देने पर श्वेत होने पर भी वह मणि पुष्प की छाया पड़ने से रक्तवर्णी प्रतीत होता है। इसी तरह सांख्य मत में आत्मा भोगक्रिया रहित होने पर भी बुद्धि के संसर्ग से बुद्धि का भोग आत्मा में प्रतीत होता है। यों जपास्फटिक न्याय से आत्मा की भोग क्रिया मानी जाती है। ___चूँकि आत्मा स्थितिक्रिया और भोगक्रिया के लिये प्रयत्न नहीं करता, इसलिये शास्त्रकार के दुबारा कहा कि 'सव्वं कव्वं ण विज्जई' अर्थात आत्मा स्वयं किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं है। एक देश से दूसरे देश में जाने की परिस्पन्दनादि सभी क्रियाएँ वह नहीं करता क्योंकि सर्वव्यापी और अमूर्त होने के कारण वह आकाश की तरह निष्क्रिय है।'
प्रस्तुत मत पूरणकाश्यप का दार्शनिक पक्ष है। पूरणकाश्यप को अक्रियावादी विचारधारा का समर्थक माना जाता है, क्योंकि इनकी दृष्टि में आत्मा निष्क्रिय तथा कर्म निष्फल है। पुण्य तथा पाप का भी कोई अस्तित्व नहीं है। सांख्य सिद्धान्त की तरह ये भी आत्मा को अकारक मानने के साथ पर पुरुषार्थ का फल नहीं मानते थे। बौद्ध साहित्य में पूरणकाश्यप के विचारों का प्रतिपादन इस प्रकार हुआ है - _ 'यदि कोई गंगा नदी के दक्षिणी किनारे पर हव्य करे या डाका डाले, तो भी कोई पाप नहीं होगा और यदि कोई उत्तरी किनारे पर यज्ञ करे या दान दे, तो भी किसी प्रकार का पुण्य नहीं मिलेगा। कर्म करते-कराते, छेदन करते-कराते, पकाते-पकवाते, शोक करते-करवाते, प्राणों का अतिपात करते-कराते, सेंध काटते-कटवाते, गाँव लूटते-लूटवाते, बटमारी करते-करवाते, पर-स्त्रीगमन करते तथा झूठ बोलते हुए भी पाप नहीं होता। तीक्ष्ण धार के चक्र से प्राणियों का वध करने से धरती पर यदि माँस का खलिहान भी लग जाये तो भी पाप का आगम नहीं होता। इसी प्रकार दान, दमन, यज्ञ, संयम आदि से पुण्य का आगम नहीं होता। अकारकवाद का खण्डन
शास्त्रकार ने सांख्यमत की आत्मा सम्बन्धी इस प्ररूपणा को सिद्धान्तविरुद्ध तथा अनुभव-विरद्ध बताया है, क्योंकि सामान्यतया जो कर्ता होता है,
250 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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