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________________ सांख्यकारिका में पुरुष (आत्मा) के पाँच धर्म बतलाए गये है - साक्षितत्व, कैवल्य, माध्यस्थ, द्रष्टत्व और अकर्तृत्व | पुरुष के अकर्तृत्वभाव की सिद्धि में दो हेतु है - 'पुरुष विवेकी है तथा उसमें प्रसव धर्म का सर्वथा अभाव है। अविवेकिता से ही सम्भूयकारिता के रूप में कर्तृत्व आता है तथा जो प्रसव-धर्मी अर्थात् अन्य तत्त्वों को उत्पन्न करने की क्षमता रखता है, वही कर्त्ता हो सकता है। अविवेकिता (सम्भूयकारिता) तथा प्रसवधर्मिता ये दोनों ही गुणों के धर्म है । अत: जहाँ गुण नहीं है, उस पुरुष तत्त्व में इन दोनों धर्मों का भी अभाव ही रहेगा- इसलिए वह कर्त्ता नहीं, अकर्त्ता ही सिद्ध होता है । शास्त्रकार ने गाथा के पूर्वार्ध में 'कुव्वं च कारवं चेव' में कुव्व पद के द्वारा आत्मा के स्वतन्त्र कर्ता का निषेध किया है। चूँकि आत्मा अमूर्त, नित्य, सर्वव्यापी है, इसलिये वह स्वतन्त्र कर्ता नहीं हो सकता और इसी कारण वह दूसरों से क्रिया करवाने वाला भी नहीं हो सकता । इस गाथा में प्रयुक्त प्रथम 'च' आत्मा भूत तथा भविष्यत - कर्तृत्व का निषेधक है । प्रश्न होता है कि जब इन दोनों पदों से समस्त क्रियाओं के स्वयं कर्तृत्व तथा कारयितृत्व का निषेध कर दिया गया, फिर पुनः 'सव्वं कुव्वं न विज्जइ' कहने की आवश्यकता क्यों पड़ी ? इसके समाधान में यह कहा जा सकता है कि सांख्यमत में आत्मा समस्त क्रियाओं में प्रवृत्त नहीं होता, किन्तु मुद्राप्रतिबिम्बोदय न्याय एवं जपास्फटिक न्याय से वह स्थितिक्रिया तथा भुजिक्रिया करता है। जैसे किसी दर्पण में मुख का प्रतिबिम्ब पड़ता है, उसी प्रकार प्रकृति रूपी दर्पण में आत्मा (पुरुष) का प्रतिबिम्ब पड़ता है। जैसे शीशे के हिलने पर उसमें पड़ा हुआ प्रतिबिम्ब भी हिलता है, उसी तरह प्रकृति में रहे हुए विकार पुरुष में प्रतिभासित होते है । इस दृष्टि से जीव अकर्ता होकर भी कर्ता हो जाता है। प्रकृति में स्थिति क्रिया होने पर पुरुष में भी स्थिति क्रिया उपलब्ध होती है। इस कारण अचेतन प्रकृति भी चेतनवती हो जाती है और आत्मा अकर्ता होने पर भी शरीर के सम्बन्ध के कारण कर्ता सदृश हो जाता है । ' जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिम्बित मूर्ति अपनी स्थिति के लिये स्वयं प्रयत्न नहीं करती बल्कि अनायास ही वह अपने चित्र में स्थित रहती है, उसी प्रकार आत्मा भी अपनी स्थिति के लिये बिना प्रयत्न किये ही स्थित रहता है। इस मुद्राप्रतिबिम्बोदय न्याय की दृष्टि से आत्मा स्थिति क्रिया का स्वयं कर्ता न होने सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 249 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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