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________________ जन्म लेने से पहले कभी स्तनपान नहीं किया, स्तन पीने की इच्छा क्यों करता है ? इस अनुमान से यही फलित होता है कि उस बालक ने पूर्वजन्म में माता का स्तनपान किया है, उसी के परिणामस्वरूप उसे जन्म लेते ही उसकी इच्छा हुई है। अत: सिद्ध है कि परलोकगामी आत्मा अवश्य है। धर्मीरूप आत्मा की सिद्धि से धर्म रूप पुण्य-पाप स्वत: सिद्ध है तज्जीव-तच्छरीरवादी पाँचभूतों से भिन्न आत्मा नामक किसी धर्मी को नहीं मानते। अत: पुण्य-पाप रूप-धर्म की असिद्धि स्वयमेव हो जाती है। परन्तु उपर्युक्त विभिन्न तर्कों के द्वारा आत्मा की सिद्धि होने पर उसके पुण्य-पाप रूप धर्म स्वत: सिद्ध है। क्योंकि अगर पुण्य-पाप न होते, तो जगत में यह विचित्रता नहीं दिखायी देती। इस विश्व में कोई सुरूप है, तो कोई कुरूप। कोई धनवान है, तो कोई निर्धन । एक ही माँ के दो पुत्रों में एक मतिमन्द है, तो एक मतिमान् । कोई स्वस्थ है, तो कोई रोगी। कोई सुखी है, तो कोई दु:खी। जगत् में प्रत्यक्ष हो रही इस विचित्रता को हम न भ्रान्ति कह सकते है, न मिथ्या प्रतीति। अत: पुण्य-पाप के अस्तित्व से इन्कार नहीं किया जा सकता। यदि मिथ्यामतवादी जगत की विचित्रता को स्वभाव से सिद्ध करने के लिए पत्थर के टुकड़ों का दृष्टान्त दें, तो वह भी युक्तिपूर्ण नहीं है। क्योंकि पत्थर के टुकड़ों में एक का देवमूर्ति बनकर पूजनीय बनना और दूसरे का पैर धोने की शिला बनना स्वभाव से नहीं हुआ बल्कि उसके पीछे उन पत्थरों के कर्म ही कारण है। उनके स्वामियों (पृथ्वीकाय-पत्थर का जीव) के कर्मवश ही वे दोनों शिला के टुकड़े वैसे हुए है। इसलिए पुण्य-पाप के अस्तित्व से इन्कार करना प्रत्यक्षानुभूत वस्तु से इन्कार करना है। समीक्षा उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि प्रस्तुत मत चार्वाकों के सिद्धान्तों का अनुसरण करने वाला ही एक सम्प्रदाय रहा होगा। इनके जीवन का मूलभूत उद्घोष है'यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।' जब तक जीये सुखपूर्वक जीये क्योंकि न आत्मा है, न पूण्य-पाप और न शुभाशुभ कर्मों का फल देनेवाला कोई परलोक है। सूत्रकृतांग में इस मत का विस्तार से उल्लेख तथा खण्डन इस बात का द्योतक है कि उस युग में इस मत के अनुयायियों की संख्या विशेष रही होगी। परन्तु वर्तमान में हमें इस मत के कोई अनुयायी, धर्मगुरु या धर्मग्रन्थ सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 247 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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