________________
ज्ञान की अमूर्त्तता से आत्मा की सिद्धि
इन भूतवादी नास्तिकों का यह कथन भी युक्ति-संगत नहीं है कि जो वस्तु जिससे भिन्न होती है, वह उससे अलग करके दिखायी जा सकती है, जैसे तलवार म्यान से अलग करके दिखायी जाती है, आदि । नास्तिकों का यह कथन उनके अज्ञान का ही परिचायक है, क्योंकि जो वस्तु मूर्त होती है, वहीं दिखायी जा सकती है। जो अमूर्त होने के कारण दिखायी जाने योग्य न हो, उसे कोई कैसे दिखा सकता है ? यदि अमूर्त पदार्थ भी प्रत्यक्ष दिखाया जाना सम्भव होता हो तो नास्तिक अपने ज्ञान को समझाने के लिए शब्द-प्रयोग क्यों करते है? उसे अपने दिमाग से निकालकर प्रत्यक्ष क्यों नहीं दिखा देते ? जैसे हथेली में रखे हुए आँवले को बताने के लिए शब्द-प्रयोग नहीं किया जाता अपितु दर्शक को सीधे ही वह दिखा दिया जाता है, तथैव ज्ञान को भी दिमाग से बाहर निकालकर प्रत्यक्ष दिखा देना चाहिए। यदि नास्तिक यह कहे कि अमूर्त होने के कारण ज्ञान दिखाया नहीं जा सकता। ठीक इसी प्रकार आत्मा भी अमूर्त होने के कारण प्रत्यक्ष का विषय नहीं हो सकता। अमूर्त्तज्ञान गुण का अधिष्ठाता गुणी अमूर्त आत्मा
___ यह सर्वसामान्य सिद्धान्त है कि सभी चेतन प्राणी अपने-अपने ज्ञान का अनुभव करते है और वह अनुभव किया जानेवाला ज्ञान गुण है तथा अमूर्त भी है, यह हम स्पष्ट कर चुके है। उस अमूर्त ज्ञान गुण का आश्रय कोई गुणी अवश्य होना चाहिए। क्योंकि गुणी के बिना गुण का रहना असम्भव है। नास्तिकों के अनुसार ज्ञान का आश्रय शरीर है। परन्तु यह कथन परस्पर विरोधी है क्योंकि ज्ञान अमूर्त है जबकि शरीर मूर्त। मूर्त का गुण मूर्त ही होता है, अमूर्त कदापि नहीं हो सकता। इस प्रकार अमूर्त ज्ञानगुण का आश्रय अमूर्त गुणी आत्मा ही
इन्द्रियों का अधिष्ठाता आत्मा ___ इन्द्रियों का कोई न कोई अधिष्ठाता अवश्य है, क्योंकि इन्द्रियाँ (करण) साधन है। इस जगत में जो-जो करण होता है, उसका कोई न कोई अधिष्ठाता अवश्य होता है, जैसे- दण्ड आदि साधनों का अधिष्ठाता कुम्भकार होता है। जिसका कोई अधिष्ठाता नहीं होता, वह करण नहीं हो सकता, जैसे- आकाश। इन्द्रिया करण है, इसलिए उनका अधिष्ठाता आत्मा है, जो उनसे भिन्न है।
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 245
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org