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4. जैसे स्वप्न में विज्ञान बहिर्मुख आकार के रूप में अनुभूत होता है, आन्तरिक
घटना बाह्य अर्थ के रूप में प्रतीत होती है, इसी प्रकार आत्मा के न
होने पर भी भूत-समुदाय में विज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। 5. स्वच्छ दर्पण में बाहर के पदार्थों का प्रतिबिम्ब पड़ने पर ऐसा आभास
होता है कि वह पदार्थ दर्पण के अन्दर स्थित है, किन्तु वैसा नहीं होता। 6. जैसे गर्मी में भूमि की उष्मा से उत्पन्न किरणें दूर से देखने पर जल
का भ्रम उत्पन्न करती है। 7. जैसे गन्धर्वनगर आदि यथार्थ न होने पर भी यथार्थ का भ्रम उत्पन्न
करते है। उसी प्रकार काया के आकार में परिणत भूतों का समुदाय
भी आत्मा का भ्रम उत्पन्न करता है। 8. जैसे सीप में रजत बुद्धि तथा रस्सी में साँप की बुद्धि मिथ्या और
अवास्तविक है, उसी प्रकार भूत समुदाय में चैतन्य-बुद्धि भी अयथार्थ एवं अवास्तविक है।
बृहदारण्यक उपनिषद् में भी आत्मा के अस्तित्व का निषेध करते हुए कहा गया है- 'प्रज्ञान (विज्ञान) का पिण्ड यह आत्मा, इन भूतों से उठकर (उत्पन्न होकर) इनके नाश के पश्चात् ही नष्ट हो जाता है, अत: मरने के पश्चात् इसकी चेतना (आत्मा) संज्ञा नहीं रहती।
तज्जीव-तच्छरीरवाद का खण्डन तथा शरीर से पृथक् आत्मा की सिद्धि
प्रस्तुत मत-वादियों का यह आग्रह नितान्त मिथ्या है कि वही जीव है और वही शरीर है, शरीर से अन्य आत्मा का अस्तित्व नहीं है। यदि आत्मा शरीर से भिन्न न हो तो किसी भी प्राणी का मरण नहीं हो सकता, क्योंकि मरने पर भी शरीर तो बना ही रहता है। फिर ऐसा कौन सा तत्व है, जिसके अभाव से शरीर के विद्यमान होने पर भी व्यक्ति को मृत कहा जाता है। यदि अभाव नहीं होता, ऐसा मानें तो फिर किसी की मृत्यु होनी ही नहीं चाहिए क्योंकि जो शरीर है, वही जीव है, आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है और शरीर की उपलब्धि साक्षात् हो ही रही है। परन्तु व्यवहारिक जगत् में ऐसा नहीं दिखायी देता । शरीर के होने पर भी व्यक्ति को मृत समझकर जला दिया जाता है, इसके पीछे एक मात्र कारण आत्मा है, जिसका अभाव होने से शरीर को मुर्दा कहा जाता है।
244 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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