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मूर्ख हो या पण्डित, शरीर का नाश होने पर सब विनष्ट हो जाते है। मरने के बाद कुछ नहीं रहता।'
पुण्य-पाप का निषेध - तज्जीव- तच्छरीरवादी पंचभूतात्मक शरीर के साथ ही आत्मा के विनष्ट हो जाने से जीव द्वारा उपार्जित पुण्य-पाप का भी निषेध करते है । पुण्य और पाप ये दोनों आत्मा रूपी धर्मी के धर्म है। जब तक धर्म टिकता है, तभी तक धर्म का अस्तित्व है । आत्मा रूपी धर्मी के अभाव से पुण्य - 1 - पाप रूपी धर्म का भी अभाव हो जाता है। आत्मा आधार है, पुण्यपाप आधेय है। आधेय के अभाव में आधार की स्थिति कैसे संभव हो सकती है ?
परलोक का अभाव पुण्य-पाप के कारण ही परलोक होता है । जब पुण्य-पाप रूप कारण ही नहीं है, तब उनसे होनेवाला परलोक भी असम्भव है । परलोक क्यों नहीं है ? ऐसा पूछने पर प्रस्तुत मतवादी कहते है कि जैसे बाँबी से बाहर निकलते समय सर्प पास में खड़े लोगों को दिखायी देता है, वैसे ही शरीर से बाहर निकलता हुआ जीव मृत शरीर के पास बैठे हुए लोगों को दिखायी नहीं देता। अतः जिसका प्रत्यक्ष नहीं होता, उसकी सत्ता कैसे मानी जा सकती है? यो अगर अनुपलब्ध पदार्थ की भी सत्ता मानी जाय तो फिर खरगोश के सींग और आकाश के पुष्प की भी सत्ता माननी पड़ेगी । अतः पंचभूतों से व्यतिरिक्त आत्मा जैसा कोई पदार्थ नहीं है । क्योंकि भूतों के विघटित होते ही आत्मा उस में विलीन हो जाती है।
भूतवादी अपने इस पक्ष को पुष्ट करने के लिए विभिन्न दृष्टान्तों को करते हैं, जिनका उल्लेख वृत्तिकार ने किया है
1. जैसे जल के बिना जल का बुदबुद नहीं होता, इसी प्रकार भूतों से व्यतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है ।
2. जैसे केले के तने की छाल को निकालने लगे तो उस छाल के अतिरिक्त अन्त तक कुछ भी सार - पदार्थ हस्तगत नहीं होता, इसी प्रकार भूतों के विघटित होने पर भूतों से व्यतिरिक्त और कुछ भी सार पदार्थ प्राप्त नहीं होता ।
प्रस्तुत
3. जब कोई व्यक्ति अलात को घुमाता है तो दूसरों को लगता है कि कोई चक्र घूम रहा है, उसी प्रकार भूतों का समुदाय भी विशिष्ट क्रिया द्वारा जीव की भ्रांति उत्पन्न करता है ।
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 243
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