________________
पुण्य-पाप ही विनष्ट हो जाते है, तो उसके भुगतान के लिए इस लोक से भिन्न किसी लोक या परलोक की कल्पना करना भी निरर्थक है।
न्याय का यह सिद्धान्त है कि कारण के अभाव में कारण के आश्रित कार्य का भी अभाव होता है। जैसे- घड़े के ठीकरों का अभाव हो जाने पर घट भी किसी प्रकार से ठहर नहीं सकता, तथैव आत्मारूप (धर्मी) कारण का ही अस्तित्व नहीं है तो उसके आश्रित धर्म-अधर्म (पुण्य-पाप) का भी अभाव हो जाता है।
जीव तथा शरीर के एकत्व की सिद्धि
प्रस्तुत सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में भी तज्जीव-तच्छरीरवाद का वर्णन विस्तार से मिलता है। पुण्डरीक कमल प्राप्त करने की इच्छावाला प्रथम पुरुष तज्जीव-तच्छरीरवादी है। इसके अनुसार
पैर के तलवे से लेकर, शिर के केशाग्र तक तथा तिरछे चमड़ी तक जो शरीर प्रतीत होता है, वही जीव है। यही पूर्ण आत्म-पर्याय है। यह जीता है, तब तक प्राणी जीता है। यह मरता है, तब प्राणी मर जाता है। शरीर रहता है (तब तक) जीव रहता है। उसके विनष्ट होने पर जीव नहीं रहता। शरीर पर्यन्त ही जीवन रहता है। शरीर के विकृत हो जाने पर दूसरे उसे जलाने के लिए ले जाते है। आग में जला देने पर उसकी हड्डियाँ कबतूर के रंग की हो जाती है। उसके पश्चात् आसंदी (अरथी, चारपाई) को उठाने वाले चारों पुरुष गाँव में लौट आते है। इस प्रकार शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व नहीं है क्योंकि शरीर से भिन्न उसका संवेदन नहीं होता। जो लोग, जीव अन्य है और शरीर अन्य है, ऐसा मानते है, वे इस प्रकार नहीं जानते कि यह आत्मा दीर्घ है या ह्रस्व, वलयाकार है या गोल, त्रिकोण है या चतुष्कोण या अष्टकोण, लम्बा है या चौड़ा, कृष्ण है या नील, लाल है या पीला है या शुक्ल । सुगंधित है या दुर्गन्धित । तीखा, कडूआ, कसैला, खट्टा, मीठा, कर्कश-कोमल, हल्का-भारी, शीत-उष्ण, स्निग्धरूक्ष कैसा है, यह नहीं बता सकते क्योंकि आत्मा का किसी भी रूप में ग्रहण नहीं होता। इस प्रकार शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व नहीं है क्योंकि शरीर से भिन्न उसका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता। यदि जीव शरीर से भिन्न होता, तो उसे भी अवश्य इसी प्रकार पृथक् दिखाया जा सकता, जैसे - 1. तलवार को म्यान से अलग निकालकर दिखाया जा सकता है कि यह
तलवार है और यह म्यान ।
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 241
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org