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________________ 3. तज्जीव-तच्छरीरवाद सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में तज्जीव-तच्छरीरवाद का वर्णन प्राप्त होता है। वही जीव है और वही शरीर है, ऐसा जो बतलाता है, वह तज्जीवतच्छरीरवादी है। यद्यपि पूर्वोक्त पंचमहाभूतवादी भी शरीर को ही आत्मा कहते है, तथापि उनके मत में पंचभूत ही शरीर के रूप में परिणत होकर सब क्रियाएँ करते है। परन्तु प्रस्तुत मतवादी ऐसा नहीं मानते। वे शरीर रूप में पंचभूतों से चैतन्यशक्ति की उत्पत्ति मानते है। यही पंचमहाभूतवादियों से तज्जीव-तच्छरीरवादी की भिन्नता है। प्रस्तुत श्रुतस्कन्ध में इस वाद का प्रतिपादन इस प्रकार हुआ है- 'जो बाल (अज्ञानी) तथा पण्डित है, उन सबके शरीर में पृथक्-पृथक् अखण्ड आत्मा है। वे आत्माएँ परलोक में नहीं जाती। उनका पुनर्जन्म नहीं होता। न पुण्य है, न पाप है। और न इस लोक से भिन्न दूसरा कोई लोक है। शरीर का विनाश होने पर आत्मा का भी विनाश हो जाता है।' इस श्लोक-युगल में वर्णित तज्जीव-तच्छरीरवादियों के उपरोक्त मत से चार परिणाम फलित होते है 1. अज्ञानी तथा पण्डित, सभी की आत्माएँ पृथक-पृथक् है। 2. जीव के शुभाशुभ कर्म फलदायक पुण्य और पाप नहीं होते। 3. इस लोक से भिन्न किसी दूसरे लोक का अस्तित्व नहीं है। 4. शरीर के नष्ट होते ही आत्मा का भी नाश हो जाने से न उसका पुनर्जन्म सम्भव है, न अन्य गतियों में भ्रमण। उपरोक्त मत से जैनदर्शन की तुलना की जाय तो प्रथम मान्यता में ही समानता दृष्टिगोचर होती है। तज्जीव-तच्छरीरवादी सभी की आत्माओं को भिन्नभिन्न मानने पर भी शरीर से भिन्न, परलोक में जानेवाला, स्वकर्मफल का भोक्ता, अनन्तशक्तिमान आत्म-तत्व का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं मानते। जबकि जैनदर्शन आत्मा के अनेकत्व को स्वीकारते हुए शरीर के उत्पाद-विनाश के साथ आत्मा की उत्पत्ति-विनाश को नहीं मानता। बल्कि शरीर से भिन्न, परलोककामी, सुखदु:ख का वेदन करनेवाला, स्वतन्त्र आत्मा ही यहाँ स्वीकार्य है। शास्त्रकार ने प्रस्तुत मतवादियों के मिथ्यामत को श्लोक-युगल में स्पष्ट किया है कि जब शरीर के नष्ट होते ही आत्मा नष्ट हो जाती है, तो उसके पुण्यपाप भी उसके साथ ही नष्ट हो जाते होंगे। जब सुकृत्-दुष्कृत् के फलस्वरूप 240 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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