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________________ आत्मा का गुण सर्वत्र नहीं पाया जाता। शरीर में ही उसका अनुभव होता है। अत: आत्मा को सर्वव्यापी न मानकर मात्र शरीरव्यापी मानना ही उचित है। जो वस्तु आकाश की तरह सर्वव्यापी होती है, वह गमन नहीं कर सकती जबकि आत्मा कर्म से प्रेरित होकर नाना गतियों में भ्रमण करती है। जब उसे सदा अविकारी, एकरस, एकरूप होना बतलाते है तो ऐसी स्थिति में उसका विभिन्न गतियों और योनियों में गमनागमन कैसे सम्भव होगा ? आत्माद्वैत मानने पर नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव, सुभग-दुर्भग, धनी-निर्धन, बाल-कुमार आदि भेद सम्भव नहीं होंगे जो कि प्रत्यक्ष जगत में अनुभव सिद्ध है। उसे एकान्त कूटस्थ नित्य मानना भी अनुचित है। वस्तुत: प्रत्येक आत्मा स्वतन्त्र है, भिन्न-भिन्न है, स्वकर्मानुसार सुखदु:ख भोगती है तथा स्व-शरीर पर्यन्त ही चैतन्य रूप है। वह नाना गतियों में जाती है इसलिये परिणामी नित्य है, कुटस्थ-नित्य नहीं। आत्मा का यही स्वरूप आर्हत दर्शन में मान्य है एवं युक्ति संगत है। सांख्यदर्शन और आत्मद्वैतवादियों का मत दोष पूर्ण होने से किसी भी स्थिति में मान्य नहीं हो सकता। सन्दर्भ एवं टिप्पणी सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 30 सूत्रकृतांग सूत्र - 1/1/1/9-10 (अ) ब्रह्म सूत्र (ब) छान्दोग्योपनिषद, 3/14/1 'सर्वमेतदिदं ब्रह्म' (स) मैत्र्युपनिषद, 4/6/3 'ब्रह्म खल्विदं वाव सर्वम्' (द) श्वेतोश्वतरोपनिषद, अ. - 4, ब्रा. 6/13 'पुरुष एवेदं सर्वं यच्चभूतं यच्चभाव्यम्। सूत्रकृतांग सूत्र - 1/1/1/10 कठोपनिषद, 2/5/10 एक एवहि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः। एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जल चन्द्रवत्॥ वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो, रूपं रूपं प्रतिररूपो बभूव । एकस्तथा सर्व भूतान्तरात्मा, रूप रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ॥ सूत्रकृतांग सूत्र - 2/6/46-47 सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 401-403 सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 239 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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