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________________ अव्यय है। जिस प्रकार चन्द्र अश्विनी आदि तारों के साथ पूर्ण रूप से सम्बद्ध रहता है, वैसे ही यह आत्मा शरीर रूप से परिणत सभी भूतों के साथ पूर्ण रूप में सम्बद्ध रहता है, किसी एक अंश से नहीं क्योंकि वह निरंश है। इस प्रकार आत्मा के ये समस्त विशेषण हमारे दर्शन में कहे गये है, आर्हत दर्शन में नहीं। यह हमारे दर्शन की विशिष्टता है इसलिये आपको भी हमारा दर्शन स्वीकार करना चाहिये। ___ इस प्रकार एकदण्डियों तथा वेदान्तवादियों ने जब आर्द्रक मुनि को स्वमत की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए उसे स्वीकारने का अनुरोध किया तब आहेत (जैन दर्शन) के मौलिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने कहा कि आपके साथ हमारा मतैक्य नहीं हो सकता। क्योंकि आप एकान्तवादी है और हम अनेकान्तवादी। आपके अनुसार जीवात्मा सर्वव्यापी है परन्तु आर्हत दर्शन में उसे मात्र शरीरव्यापी माना है। जिस प्रकार आत्मा के विषय में मतभेद है, उसी प्रकार संसार के स्वरूप के विषय में भी मतभेद है। आप कहते है कि सभी पदार्थ प्रकृति से सर्वथा अभिन्न है परन्तु हमारे अनुसार कारण में कार्य द्रव्य रूप में विद्यमान रहता है। पर्याय रूप से नहीं। आर्हत दर्शन एवं सांख्य-वेदान्त दर्शन में यह सबसे बड़ा मतभेद है। आत्माद्वैतवादियों के अनुसार कार्य कारण में सर्वात्मरूप से विद्यमान रहता है परन्तु आर्हत दर्शन में सर्वात्म रूप से विद्यमान नहीं होता। इसके अनुसार सभी सत् पदार्थ उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य युक्त माने जाते है जबकि सांख्य मतवादी सभी पदार्थों को मात्र ध्रौव्यात्मक ही मानते है। यद्यपि पदार्थों का आविर्भाव तथा तिरोभाव मानते है लेकिन वे भी उत्पत्ति और विनाश के बिना नहीं हो सकते। अत: ऐहिक तथा पारलौकिक किसी भी पदार्थ के सम्बन्ध में दोनों एक मत नहीं है। सांख्यवादी आत्मा को सर्वव्यापी, अव्यक्त, नित्य, सनातन, अनन्त, अक्षय, अव्यय तथा समस्त भूतों (चेतन-अचेतन) में सर्वात्मरूप से स्थित मानते है जोकि अयुक्तिसंगत है। एकान्तरूप से नित्य तथा अविकारी आत्मा को स्वीकारने पर समस्त पदार्थ नित्य हो जायेंगे तो बंध तथा मोक्ष का सद्भाव कैसे होगा ? बंध के अभाव से चतुर्गति रूप संसार नहीं होगा तथा मोक्ष के अभाव से यम-नियम-व्रत ग्रहण भी निरर्थक ही सिद्ध होगा। ___ आत्मा को सर्वव्यापी मानना भी युक्तिसगंत नहीं है, क्योंकि चैतन्य रूप 238 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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