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सम्भव नहीं है।
4. जड़-चेतन सभी में एक ही आत्मा मानने पर आत्म का चैतन्य या ज्ञान गुण जड़ में भी आ जायेगा जो कि दोषपूर्ण है।
5. जिसे शास्त्र का उपदेश दिया जाता है वह तथा शास्त्र का उपदेष्टा, दोनों में भेद न होने के कारण शास्त्र रचना भी नहीं हो सकेगी।
उपरोक्त तर्कों द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि एकात्मवाद की धारणा कपोल कल्पना है। इसलिये कहा है -
नैकात्मवादे सुख दु:ख मोक्ष, व्यवस्था कोऽपि सुखादिमान् स्यात्। __एकात्मवाद में सुख, दु:ख, मोक्ष आदि व्यवस्थाएँ गडबडा जायेगी इसलिये इस मत को मानकर कोई सुखी नहीं हो सकता। अत: जड़-चेतनात्मक जगत में सिर्फ एक ही आत्मा है, यह कहना युक्तियुक्त नहीं है।
शास्त्रकार कहते है कि कई आत्माद्वैतवादी 'ब्रह्म ज्ञान ही सर्वज्ञ ज्ञान है' इस मिथ्या धारणा में फँसकर नि:शंक होकर आरम्भ-समारम्भ करते व पापाचरण में प्रवृत्त होते है। परन्तु यह ब्रह्म-ज्ञान उन्हें कर्मबंधन से बचाने में समर्थ नहीं होता। इस प्रकार वे अपनी आत्म वंचना करके पापकर्म के परिणामस्वरूप इह लोक में भी दु:ख पाते है तथा परलोक में भी नरक, तिर्यंचादि दुर्गतियों में जाकर नाना प्रकार के दु:खों से पीड़ित होते है क्योंकि “एगे किच्चा सयं पावं तिव्वं दुक्खं णियच्छई' जो पापकर्म करता है, उसे अकेले ही उसका फल तीव्र दु:ख के रूप में भोगना पड़ता है।
एकात्मवाद का निरूपण सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के षष्ठ आर्द्रकीय अध्ययन में भी हुआ है।
इस अध्ययन की 46वीं गाथा से 51वीं गाथा पर्यन्त एकदण्डी (सांख्यमतवादी) तथा आत्माद्वैतवादियों (वेदान्तवादी) का आर्द्रक मुनि के साथ हुए तात्त्विक संवाद का निरूपण है। ये सांख्यवादी एकदण्डी आर्हत् दर्शन से अपने दर्शन की तुलना करते हुये कहते है कि जिसे हम पुरुष कहते है, उसे आप जीवात्मा कहते है। वह जीवात्मा अमूर्त होने से अव्यक्त रूप है। वह कर, चरण, सिर और गर्दन आदि अवयवों से युक्त न होने से सर्वव्यापी है। उसकी नाना योनियों में गति होने पर भी उसके चैतन्य रूप का कदापि नाश नहीं होता, अत: वह नित्य है। उसके प्रदेशों को कोई खण्डित नहीं कर सकता, अत: अक्षय है। अनन्त काल बीत जाने पर भी उसके एक अंश का भी विनाश न होने से
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 237
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