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वेदान्ती समस्त जड़-चेतनात्मक लोक को आत्मस्वरूप, चैतन्यमय मानते है तथा ब्रह्म के अतिरिक्त समस्त पदार्थों को असत्य मानते है।
शास्त्रकार ने एकात्मवाद को ‘एगे' शब्द द्वारा अन्य मत के रूप में निर्दिष्ट किया है। इससे यही फलित होता है कि जैन दर्शन के अनुसार जगत एकात्मक नहीं है। उसमें नाना जीव है और वे सभी अपने-अपने कर्मों का फल भोगते है न कि एक आत्मा।
सूत्रकृतांग में एकात्मवाद (आत्माद्वेतवाद) के स्वरूप निरूपण के पश्चात उसे अयथार्थ तथा युक्तिरहित बताया गया है, तथा उनकी प्ररूपणा करने वालों को सूत्रकार ने मन्दबुद्धि, अज्ञानी, विवेकहीन तथा मिथ्या प्रलाप करने वाले कहा
एकात्मवादी जगत की एकात्मकता को सिद्ध करने के लिये अनेक दृष्टान्त और तर्क प्रस्तुत करते है। 'जैसे - चन्द्रमा जल से भरे हुये विभिन्न पात्रों में अनेक दिखाई देता है, इसी प्रकार एक ही आत्मा उपाधि भेद से नाना रूपों में दिखाई देता है।'
'जैसे एक ही वायु समस्त लोक में व्याप्त है परन्तु उपाधि भेद से अलगअलग रूप वाला हो गया है, वैसे ही सर्वभूतों में रहा हुआ एक ही आत्मा उपाधि भेद से भिन्न-भिन्न रूप वाला हो जाता है।'' ___इन तर्कों के द्वारा वे सम्पूर्ण जगत को एक ब्रह्मरूप सिद्ध करने का हास्यास्पद प्रयास करते है इसलिये शास्त्रकार ने उन्हें जड़बुद्धि कहकर सम्बोधित किया है। एकात्मवाद के अनुसार सम्पूर्ण विश्व में एक ही आत्मा मानने पर निम्नलिखित आपत्तियाँ आ पड़ेगी -
1. सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक ही ब्रह्म (आत्मा) का अस्तित्व स्वीकार करने पर एक के द्वारा किये गये शुभ या अशुभ कर्मों का फल अन्य सभी को भोगना पड़ेगा जो कि अनुचित तथा अयुक्तिसंगत है।
___ 2. एक के कर्मबंधन होने पर सभी कर्म से बद्ध तथा एक के कर्म से मुक्त होने पर सभी कर्ममुक्त हो जायेंगे। इस प्रकार बंध और मोक्ष की अव्यवस्था हो जायेगी।
3. एकात्मवाद मानने पर देवदत्त को प्राप्त ज्ञान यज्ञदत्त को होना चाहिये तथा एक के जन्म लेने, मरने या किसी कार्य में प्रवृत्त होने पर सभी जीवों को जन्म लेना, मरना तथा उस कार्य में प्रवृत्त हो जाना चाहिये। परन्तु ऐसा कदापि 236 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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