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सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 18 वही वही प्रमाण षट्कविज्ञातौ, यत्रार्थो नान्यथा भवन् । अदृष्टं कल्पयेदन्यं, साऽर्थापत्तिरुदाहृता॥ आचारांग सूत्र, 1/1/1/1 सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 19
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2. एकात्मवाद सूत्रकृतांग सूत्र में पंचमहाभूतवाद के पश्चात एकात्मवाद का निरूपण तथा निराकरण किया गया है। नियुक्ति में इसे 'एकप्पए' अर्थात् एकात्मक कहा है।' परन्तु सूत्रकार ने इसका कोई नामोल्लेख नहीं किया है। सूत्रकृतांग सूत्र में इसके स्वरूप का निरूपण करते हुए सयुक्तिक खण्डन किया गया है।
प्रथम श्रुतस्कन्ध में वर्णित एकात्मवाद उत्तर मीमांसा (वेदान्त वादियों) का प्रधान सिद्धान्त है। वे अद्वैत ब्रह्म की कल्पना करते हुये कहते है ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन' अर्थात् इस जगत में सब कुछ ब्रह्मरूप ही है। उसके सिवाय नानारूपों में दिखाई देने वाले पदार्थ कुछ भी नहीं है। दूसरे शब्दों में, चेतन-अचेतन (पृथ्वी आदि पंचभूत तथा जड़ पदार्थ) जितने भी पदार्थ है, वे सब एक ब्रह्मरूप है। सभी प्राणियों के शरीर में जो भूतकाल में रहा है, भविष्य में रहेगा, वह एक ही ब्रह्म भासमान होता है।'
इसी बात को शास्त्रकार यहाँ पर स्पष्ट करते हुये कहते है कि ‘एवं भो कसिणे लोए विण्णू नाणा हि दीसए' यह समस्त लोक एक ज्ञानपिण्ड है, जो नानारूपों में दिखायी देता है। एकात्मवादी नानारूपों में दिखाई देने वाले पदार्थों को भी दृष्टान्त द्वारा आत्मरूप सिद्ध करते है।
जिस प्रकार एक ही पृथ्वी-पिण्ड सरिता, सागर, ग्राम, घट, पट, पर्वत, नगर आदि नाना रूपों में दिखाई देता है अथवा ऊँचा-नीचा, कोमल-कठोर, लाल-पीला-भूरा आदि के भेद से नाना प्रकार का दिखाई देता है किन्तु इन सब में व्याप्त पृथ्वी तत्त्व का भेद नहीं होता, उसी प्रकार एक ज्ञान-पिण्ड आत्मा ही चेतन-अचेतन रूप समस्त लोक में पृथ्वी, जल आदि भूतों के आकार में नानाविध दिखाई देता है। इस भेद से आत्मा के स्वरूप में कोई भेद नहीं होता।
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 235
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