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योनियों में परिभ्रमण करता हुआ, जिस जीव के शरीर का जितना परिमाण है, उतने ही परिमाण में व्याप्त हो जाता है।"
प्रस्तुत विस्तृत विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि लोकायतिक मत एकान्त मिथ्या आग्रह है। ज्ञान-दर्शन-चारित्रादि गुणों का अधिष्ठाता (आत्मा) पंचमहाभूतों से उत्पन्न नहीं हो सकता। क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार द्रव्यापेक्षया आत्मा न जन्मता है, न मरता है। न उसकी आदि है, न उसका अन्त। वह सदाकाल से है व सदाकाल तक रहेगा। कर्मबद्ध आत्मा विविध योनियों में भ्रमण करता रहता है जबकि कर्मयुक्त आत्मा लोकान्त में सिद्धशिला पर सादि-अनन्तकाल तक स्थित हो जाता है। यहीं आत्मा का अर्हत् प्रणीत सत्य स्वरूप है।
सन्दर्भ एवं टिप्पणी सूयगडो, 1/1/1/7-8 (अ). सूत्रकृतांग चूर्णि - पृ. 23 (ब). सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 15 वही, पृ. - 16 सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. - 23-24 (अ). षड्दर्शनसमुच्च -
पृथिव्यादिभूत संहत्यां, तथा देहादि संभवः।
मदशक्ति : सुरांगेभ्यो यत्तद्वच्चिदात्मनि ॥84।। (ब). . प्रमेयकमल मार्तण्ड, पृ. 115 : शरीरेन्द्रिय विषय संज्ञेके च पृथिव्यादि
भूतेभ्यश्चैतन्याभिव्यक्ति पिष्टोदक: गुडघात क्यादिभ्यो मदशक्तिवत्। सूयगडो, 2/1/23 वही, 2/1/23-26 दीघनिकाय, 1/2/4/25 सूयगडो, 1/1/1/7-8 टिप्पण - 30 सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 33 सूत्रकृतांग अमर सुख बोधिनी व्याख्या, प्र.श्रु. - पृ. 69 सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 16 वही वही सूत्रकृतांग अमर सुखबोधिनी व्याख्या, प्र.शु. - पृ. 75 वही
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234 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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