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जैनदर्शन के अनुसार आत्मा का स्वरूप
जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है। यहाँ प्रत्येक पदार्थ के स्वरूप के विषय में सापेक्ष कथन किया जाता है। लोकायतिकों के एकांगी एवं मिथ्या दृष्टिकोण का विविध युक्ति एवं हेतुओं से निराकरण करते हुए वृत्तिकार ने आत्मा के अस्तित्व के पक्ष में विभिन्न तर्क प्रतिपादित करते हुए उसके स्वरूप का विश्लेषण किया
आत्मा का नित्यानित्यत्व - जैनदर्शन के अनुसार आत्मा द्रव्य की दृष्टि से नित्य होते हुए भी पर्याय की दृष्टि से कथंचित् अनित्य है। जैसे - घट द्रव्य रूप से नित्य है परन्तु नवीनता, प्राचीनता आदि पर्यायों की दृष्टि से अनित्य है, इसी प्रकार आत्मा बाल्यावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था आदि पर्यायों की अपेक्षा से अनित्य है। संसारी आत्मा अनादिकाल से कर्मबंध से जकड़ा हुआ सूक्ष्मबादर, स-स्थावर, पर्याप्त-अपर्याप्त, एकेन्द्रिय, बेईन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय आदि अनेक अवस्थाओं को प्राप्त करता है। कर्मबंधन के फलस्वरूप आत्मा एक गति से दूसरी गति में, एक जाति से दूसरी जाति में, एक योनि से दूसरी योनि में भ्रमण करता रहता है। कभी मनुष्य पर्याय से देव पर्याय को, कभी तिर्यञ्च पर्याय से नरक पर्याय को प्राप्त करता है। इन समस्त पर्यायों की अपेक्षा आत्मा अनित्य है परन्तु द्रव्य की अपेक्षा आत्मा नित्य है। क्योंकि समस्त योनियों में भ्रमण करनेवाला, विविध शरीर धारण करनेवाला और शुभाशुभ कर्मानुसार सुख-दु:ख का वेदन करने वाला आत्मा है। उन विविध शरीरों के नष्ट होने पर, भी आत्मा नष्ट नहीं होता। यहाँ तक कि समस्त कर्मों का क्षय होकर वह मुक्त, शुद्ध, बुद्ध हो जाय, तब मोक्ष में भी आत्मा ही जाता है, अत: द्रव्यापेक्षया आत्मा नित्य और शाश्वत है।
__ आत्मा स्वशरीरव्यापी - विभिन्न मतवादी आत्मा के भिन्न-भिन्न परिमाण की कल्पना करते है। कोई आत्मा को अणूपरिमाण वाला मानते है, तो कोई ब्रह्माण्डव्यापी। कोई श्यामाकतंदुल (धान्य-विशेष) के बराबर मानते है, तो कोइ अंगुष्ठ-पर्व जितना। जैनदर्शन के अनुसार आत्मा न तो महत् (विराट) परिमाणवाला है, न अणु जितना छोटा। वह मात्र स्वशरीरव्यापी है। जैसे- घट के रूपादि घट से भिन्न प्रदेश में नहीं पाये जाते। वे घट में ही रहते है, वैसे ही आत्मा के ज्ञानादि गुण भी शरीरपर्यन्त ही पाये जाते है, शरीर से अन्यत्र नहीं। इस कारण ज्ञानादि गुणों का अधिकरण (आत्मा) सर्वव्यापक नहीं बल्कि शरीरव्यापी ही है, जो विविध
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 233
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