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। आनन्दानुभूति साध्वी श्री नीलांजना श्री जी ने प्रस्तुत ग्रंथ में अपनी प्रतिभा, प्रज्ञाशोध और श्रद्धामय अथक प्रयास से सूत्रकृतांग का अध्ययन कर उसके दार्शनिक वैशिष्ट्य का नवनीत प्रकट किया है। पाठकों, भावी शोधार्थियों तथा अध्यात्मप्रेमियों के लिये विदुषी शोधकी ने जैन आगमों में प्राचीन
और अमूल्य ग्रंथ सूत्रकृतांग को अपने शोध का आधार बताया और निम्न निष्कर्ष निकाले हैं, जो अत्यंत उपयोगी हैं। वे बधाई की पात्र हैं।
1. यह आगम नवदीक्षित साधु-साध्वियों को संयम में स्थिर करने तथा बुद्धि को निर्मल बनाने में सहायक है।
2. जो अध्येता तत्कालीन प्रचलित विभिन्न वादियों के सिद्धांतों को जानना चाहते हैं, उनके लिये सूत्रकृतांग में वर्णित विभिन्न वाद ज्ञानवर्धक हैं, किंतु यह जानना आवश्यक है कि वे अनेकांत दृष्टि से अपूर्ण सत्यता के ज्ञापक हैं।
3. सूत्रकृतांग में जैन-अजैन का भेद भुलाकर जीव-अजीव, लोकअलोक, पुण्य-पाप, आस्रव-बंध, संवर-निर्जरा-मोक्ष के विवेचन से आलोकित अध्यात्म पथ के प्रणेता परम शांति को प्राप्त होते हैं।
4 साध्वी श्री की शोध ने यह सिद्ध किया है कि सूत्रकृतांग सूत्र में जैन-बौद्ध और ब्राह्मण धर्म के बीच वास्तविक विरोध नहीं है, संभवतः इसीलिये भगवान महावीर के लिये मतिमान-ब्राह्मण महावीर का प्रयोग किया गया है (खण्ड प्रथम, अध्ययन 9-10) तथा संसार के सत्य का विचार करने वालों को श्रमण और ब्राह्मण (खण्ड प्रथम, अध्ययन 12) बताया गया है।
सूत्रकृतांग में श्रमण धर्म सम्मत इन्द्रिय-मन-संयम तथा ब्राह्मण धर्म में प्रतिपादित आत्मा की विशालता के अनुपम समन्वय को रेखांकित कर महाराज श्री ने अपनी इस कृति में मौलिक शोध तथा आगम और
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