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वर्धापना
जैन आगम साहित्य में सूत्रकृतांग सूत्र का विशेष महत्व है। जर्मन दार्शनिकों ने सर्वाधिक प्राचीन आचारांग और सूत्रकृतांग सूत्र को माना है; क्योंकि इन सूत्रों की रचना वेद - छंदों में हुई है । सूत्रकृतांग की विषय वस्तु में उस काल और समय की दार्शनिक परंपराओं का उल्लेख है तथा तुलनात्मक विवरण भी उपलब्ध है।
साध्वी नीलांजना श्री जी ने 'सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन' विषय पर 'पी-एच.डी. ' की उपाधि प्राप्त की है। यह माना जाना समीचीन ही प्रतीत होता है कि जैन तत्वज्ञान और जैन दर्शन की धारणाएं एक साथ ही शुरू हुई हैं। इस सूत्र में जहाँ एक ओर भगवान महावीर की चर्या, ज्ञान, ध्यान, तप, त्याग आदि की प्रशस्ति की गयी है, वहीं विरोधी आचार वाले कुशील तथा मिथ्या मान्यताओं की प्ररूपणा एवं उनका खण्डन भी किया गया है। अन्य मत की मान्यताओं के खण्डन की परंपरा प्राचीन रही है। लेखिका की दृष्टि में यह ग्रंथ जितना अध्यात्म के क्षेत्र में उपयोगी है, उतना ही वर्तमान की व्यवस्थाओं में भी प्रासंगिक है।
आगम साहित्य का अध्ययन करने वाले सुधी पाठकों के लिये यह पुस्तक अत्यंत उपयोगी है । लेखन शैली तथा विषय विश्लेषण इतना सहज रूप से हुआ है कि साधारण पाठक भी जैन तत्वज्ञान और उसके दार्शनिक स्वरूप को समझ सकता है। आज ऐसे साहित्य की आवश्यकता है, जो जैन आगम - अध्ययन में रूचि पैदा करें और यह स्पष्ट करें कि भगवान महावीर के सिद्धांत मात्र बौद्धिक ही नहीं, अपितु व्यावहारिक भी हैं। लेखिका साध्वी डॉ. नीलांजना श्री जी की यह पुस्तक दार्शनिक जगत को विशिष्ट देन है, ऐसा मेरा मानना है ।
डॉ. महावीरराज गेलडा संस्थापक कुलपति, एमरिटस प्रोफेसर, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं
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