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________________ आगमेतर साहित्य के विस्तृत ज्ञान का परिचय दिया है। - मैं इस मंडल से विगत 7 वर्षों से लगातार संपर्क में हूँ। उदयपुर चातुर्मास में मैंने बहिन म. श्री विद्युत्प्रभा श्री जी को पढ़ाया था। तभी सर्वप्रथम मैं उनके संपर्क में आयी थी। बाद में साध्वी नीलांजना श्री जी को पढ़ाने का अवसर मिला। उस समय उन्होंने मुझसे न्याय ही पढ़ा था, क्योंकि शोध का विषय न्याय पर आधारित था। अपनी पैनी एवं गंभीर प्रज्ञा से उन्होंने मुझे आकृष्ट ही नहीं किया अपितु आह्लादित भी किया था। मैं उन जैसी प्रतिभासंपन्न साध्वी जी को एक छात्रा के रूप में पाकर जितनी संतुष्ट हुई थी, उतनी ही श्राविका के नाते गौरवान्वित भी; कि हमारे संघ में ऐसी विशिष्ट प्रतिभाएं हैं। मैंने साध्वी नीलांजना श्री जी को अत्यन्त निकटता से देखा है। निष्कर्ष रूप में मैं कह सकती हैं कि उनका मस्तिष्क जितना प्रखर है, हृदय उतना ही कोमल एवं भीगा हुआ है। नि:संदेह अपनी प्रतिभा से वे आप्तवचनों को जितना समझ सकती हैं, हृदय की सरलता एवं कोमलता से उन्हें उतना ही आत्मसात् भी कर सकती हैं और यही तो उनके जीवन का अंतिम लक्ष्य है। जैसा कि उन्होंने शोधग्रन्थ के प्रांरभ में ही उल्लेख किया है 'साधक को बंधन के कारणों को समझ कर उनसे मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिये।' इस अनमोल वाक्य संपदा को वे सतत स्मृति में रखें और इसे क्रियान्वित करते हुए बंधनमुक्त होने का पुरूषार्थ करें। - डॉ. सुषमा सिंघवी क्षेत्रीय निदेशक, इंदिरा गांधी खुला विश्वविद्यालय, जयपुर xix Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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