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रूप में विद्यमान् हो। स्वर्गादि का अस्तित्व तो है, परन्तु वह प्रत्यक्षसिद्ध नहीं है । चार्वाकों को स्वर्ग के अभाव के ज्ञान के लिए पहले स्वर्गादि का ज्ञान, प्रत्यक्ष के सिवाय अन्य किसी प्रमाण से करना ही होगा। इसी प्रकार दूसरों के अभिप्राय को जानना-समझना और दूसरों को अपना अभिप्राय समझना भी प्रत्यक्ष के सिवाय अनुमानादि प्रमाण द्वारा ही सम्भव होगा । इस प्रकार प्रत्यक्ष से भिन्न अनुमानादि प्रमाणों की सिद्धि और उनसे स्वर्ग आदि अतीन्द्रिय पदार्थों की भी सिद्धि हो जाती है ।
प्रत्यक्ष प्रमाण से आत्मा की सिद्धि
आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व है, क्योंकि उसका असाधारण गुण चैतन्य है, वह उपलब्ध होता है। इस प्रकार कार्य की उपलब्धि से कारण की अर्थात् देह से भिन्न आत्मा की सिद्धि होती है। आत्मा का अस्तित्व सब प्रमाणों में ज्येष्ठ तथा प्रधान प्रत्यक्ष प्रमाण से स्वयंसिद्ध है । आत्मा के ज्ञानादि गुण मानसप्रत्यक्ष द्वारा भी प्रत्यक्ष किये जाते है । वे ज्ञानादि गुण अपने गुणी आत्मा से अभिन्न है। गुण तथा गुणी एक होने से मानस - प्रत्यक्ष से भी आत्मा का प्रत्यक्ष होता है। 'मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, आदि अनुभूत वाक्यों में 'मैं' यह ज्ञान आत्मा का ही ग्राहक है । "
अनुमान प्रमाण से आत्मा की सिद्धि
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आत्मा है, क्योंकि उसका असाधारण गुण पाया जाता है, जैसे- चक्षुरिन्द्रिय । यद्यपि अतिसूक्ष्म होने के कारण आत्मा साक्षात् ज्ञात नहीं होती । तथापि स्पर्शन आदि इन्द्रियों से न होने योग्य रूप - विज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति ज्ञात होने से आत्मा का अनुमान किया जाता है। इसी प्रकार पृथ्वी आदि में न होने वाले चैतन्य-गुण को देखकर भी आत्मा का अनुमान होता है । "
अर्थापत्ति प्रमाण से आत्मा की सिद्धि
अर्थापत्ति, जो सातवाँ प्रमाण है, उससे भी आत्मा सिद्ध होता है। अर्थापत्ति प्रमाण का लक्षण है कि जिस पदार्थ का अन्य पदार्थ के बिना न होना छह प्रमाणों से निश्चित हो, वह पदार्थ अपनी सिद्धि के लिए जो अन्य अदृष्ट की कल्पना करता है, उसे अर्थापत्ति प्रमाण कहते है । "
अर्थापत्ति को समझाने के लिए इस प्रकार का दृष्टान्त करते है - 'पीनोऽयं
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 231
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