SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ को दूसरा स्मरण नहीं कर पाता अतएव इन्द्रियाँ चेतनवान् या ज्ञानवान् नहीं है । 12 - ‘नान्यद् दृष्टं स्मरत्यन्यो नैकभूतमक्रमात् ' । पंचभूतों से भिन्न है आत्मा वृत्तिकार एक शंका प्रस्तुत करते है- यदि पंचभूतों से भिन्न आत्मा नामक कोई पदार्थ नहीं है तो फिर मृत शरीर के विद्यमान रहते भी 'वह (शरीरी) मर गया' ऐसा व्यवहार क्यों होता है ? क्योंकि मरते समय भी पाँचों भूत और तज्जन्य चैतन्य शक्ति तो रहती है। चार्वाक इस शंका का समाधान यों करते है कि शरीर रूप में परिणत पंचभूतों में चैतन्यशक्ति प्रकट होने के पश्चात् उन पाँच भूतों में से वायु या तेज किसी भी एक या दोनों के विनष्ट हो जाने पर देही का नाश हो जाता है, उसी पर से 'वह मर गया' ऐसा व्यवहार होता है, परन्तु यह युक्ति निराधार है। मृत शरीर में भी पाँचों भूत विद्यमान रहते है, फिर भी उसमें चैतन्यशक्ति नहीं रहती । इसलिये यह सिद्ध है कि चैतन्य ( आत्मा ) पंचभौतिक शरीर से भिन्न है । " 13 पंचभूतों के संयोग से चैतन्य आत्मा की उत्पत्ति असंभव है चार्वाकों की यह युक्ति भी अयथार्थ है कि गुड, आटा, महुआ आदि मद्य के प्रत्येक अंग में न रहने वाली मादकशक्ति उसके समुदाय से उत्पन्न होती है, उसी प्रकार प्रत्येक भूत में चैतन्यशक्ति न होकर पंचभूतों के समुदाय से चैतन्यशक्ति प्रकट होती है । यहाँ दृष्टान्त और द्राान्तिक में समानता नहीं है। गुड, आटा, महुआ आदि मद्य के प्रत्येक अंग में सूक्ष्म रूप से मादक शक्ति विद्यमान रहती है और वही समुदायावस्था में स्पष्ट रूप से प्रगट होती है । परन्तु यहाँ तो पृथ्वी, अप् आदि प्रत्येक भूत में चैतन्य का सर्वथा अभाव है, तब भूतों के समूह में चैतन्यशक्ति कहाँ से उत्पन्न होगी ? Jain Education International लोकायतिक यह मानते है कि पंचभूतों के सम्मेलन मात्र से चैतन्यगुण उत्पन्न हो जाता है, पर यह कथन प्रत्यक्ष अनुभव की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। क्योंकि एक कारीगर द्वारा बनायी गयी मिट्टी की एक पुतली में पृथ्वी (मिट्टी), जल, तेज ( धूप व पकाते समय अग्नि ), हवा तथा आकाश इन पाँचों का संयोग होने पर भी वहाँ चेतना प्रकट होती हुई दिखायी नहीं देती। यदि पाँच भूतों के संयोग से ही चैतन्य उत्पन्न होता है, तो वह पुतली स्वयं बोलती या चलती क्यों नहीं ? जड ही क्यों बनी रहती है ? इससे स्पष्ट है कि पंचूभतों 228 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy