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________________ अच्छा है। सन्दिग्ध सोने के सिक्के की अपेक्षा निश्चित् चाँदी का सिक्का अच्छा है।' प्रत्यक्ष ही प्रमाण है - लोकायतिक अपने मत को सत्य प्रमाणित करने के लिए प्रमाण का भी सहारा लेते है। इनके अनुसार एकमात्र प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, अनुमान आदि प्रमाण मिथ्या भी हो जाते है और उनमें बाधक एवं असम्भव दोष भी हो सकते है। अत: प्रत्यक्ष में उपलब्ध पाँच महाभूतों से भिन्न आत्मा नामक किसी पदार्थ का ग्रहण नहीं होता। मात्र इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष पदार्थ का ही स्वीकार होने से अतीन्द्रिय पदार्थ- आत्मा, कर्म, पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक, बंध-मुक्ति आदि की सत्ता स्वत: अस्वीकार्य हो जाती है। पंचमहाभूतवाद का खण्डन शास्त्रकार ने मूल ग्रन्थ में इस वाद का कहीं भी खण्डन नहीं किया गया है। किन्तु नियुक्तिकार तथा वृत्तिकार ने इसका खण्डन किया है। नियुक्तिकार के अनुसार पंचमहाभूतों का गुण चैतन्य नहीं होने से उससे उत्पन्न आत्मा में भी चैतन्य नहीं होगा। जैसे- बालू में तेल उत्पन्न करने वाला स्निग्धता का गुण नहीं है, इसलिये बालू को पीलने से तेल पैदा नहीं होता, उसी प्रकार पंचभूतों में चैतन्य उत्पन्न करने का गुण न होने से, उनके संयोग से चैतन्य उत्पन्न नहीं हो सकता। जिनका गुण चैतन्य से अन्य है, उन पृथ्वी आदि पंचभूतों के संयोग से चेतनादि गुण कैसे प्रकट हो सकते है? चैतन्य गुण इन्द्रियों का न होने से आत्मा की सिद्धि स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु तथा श्रोत्ररूप पाँच इन्द्रियों के जो उपादान कारण है, उनका गुण भी चैतन्य नहीं होने से भूतसमुदाय का गुण चैतन्य नहीं हो सकता। क्योंकि एक इन्द्रिय के द्वारा जानी हुई बात दूसरी इन्द्रिय नहीं जान पाती, तो फिर मैंने सुना भी, देखा भी, चखा, सूंघा और छुआ भी, इस प्रकार का संकलनरूप ज्ञान किस को होगा? परन्तु यह संकलनज्ञान अनुभवसिद्ध है। इससे प्रमाणित होता है कि भौतिक इन्द्रियों के अतिरिक्त अन्य कोई एक द्रष्टा अवश्य होना चाहिए, और वह द्रष्टा आत्मा ही हो सकता है, भूत समुदाय नहीं क्योंकि चैतन्यगुण आत्मा का है, भूत समुदाय का नहीं। इस सम्बन्ध में इस प्रकार का अनुमान प्रयोग होता है - भूत समुदाय चैतन्य गुण वाला नहीं है, क्योंकि वह अचेतन गुण वाले 226 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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