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है। इनमें आकाश परिगणित नहीं है। केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को मानने वाले चार्वाक अमूर्त आकाश को मान भी कैसे सकते है ? दर्शन युगीन साहित्य में चार्वाकसम्मत चार भूतों का ही उल्लेख मिलता है। आगम युग में पंचमहाभूतवादी थे।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध में पंचमहाभूतवाद का वर्णन इस प्रकार है- अगाध जल से परिपूर्ण पुष्करिणी में खिले पुण्डरीक कमल को प्राप्त करने की इच्छावाला द्वितीय पुरुष पञ्चमहाभूतवादी है, जिसके अनुसार - इस जगत् में पंचमहाभूत ही सब कुछ है, जिनसे हमारी क्रिया-अक्रिया, सुकृत्-दुष्कृत, कल्याण-पाप, अच्छा-बुरा, सिद्धि-असिद्धि, नरक-स्वर्ग तथा अन्तत: तृण मात्र कार्य भी इन्हीं पंचमहाभूतों से निष्पन्न होता है। उस भूत समवाय को पृथक्-पृथक नामों से जानना चाहिए, यथा- पृथ्वी महाभूत, जल महाभूत, तेज महाभूत, वायु महाभूत, आकाश महाभूत। ये पंचमहाभूत अनिर्मित, अनिर्मापित, अकृत, अकृत्रिम, अकृतक, अनादि-अनिधन (अनन्त), अवन्ध्य (सफल), अपुरोहित (दूसरे के द्वारा अप्रवर्तित), स्वतन्त्र और शाश्वत है।'
पंचमहाभूतवाद पकुधकात्यायन के दार्शनिक पक्ष की एक शाखा है। बौद्धसाहित्य में पकुधकात्यायन सम्मत सात कायों का उल्लेख मिलता है। 'पृथ्वी, अप, तेज, वायु, सुख, दुःख तथा जीव, ये सात काय (पदार्थ) अकृत, अकृतविध, अनिर्मित, अनिर्मापित, वन्ध्य, कूटस्थ तथा खम्भे के समान अचल है। वे हिलते नहीं, बदलते नहीं, आपस में कष्टदायक होते नहीं और एक-दूसरे को सुखदुःख देने में भी असमर्थ है। इन सातों में मरनेवाला, मारनेवाला, सुननेवाला, कहनेवाला, जाननेवाला कोई नहीं। जो भी तीक्ष्ण शस्त्र से सिर का छेदन करता है, वह किसी जीव का व्यपरोपण नहीं करता। वह शस्त्र इन सात पदार्थों के अवकाश में घूसता है।
अतीन्द्रिय पदार्थ का निषेध - पंचभूतवादी शरीर से भिन्न आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं मानते। चूँकि आत्मा का अस्तित्व नहीं है, अत: परलोक, पुनर्जन्म और मोक्ष का तो प्रश्न ही नहीं उठता। भूतवादी सिद्धान्त के अनुसार मृत्यु ही मोक्ष है। वे धर्माचरण को भी महत्त्व नहीं देते। उनका प्रतिपाद्य है कि धर्म का आचरण नहीं करना चाहिए। इसकी पुष्टि में उनका तर्क है कि उसका फल परलोक में होता है। जब परलोक ही सन्दिग्ध है, तब उसका फल असंदिग्ध कैसे होगा ? कौन समझदार पुरुष हाथ में आये हुए मूल्यवान् पदार्थ को दूसरों को सौंपना चाहेगा? कल मिलने वाले मयूर की अपेक्षा आज मिलनेवाला कबूतर
सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णित वादों का दार्शनिक विश्लेषण / 225
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