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________________ कथन अयथार्य है। वास्तव में देखा जाये तो वर्तमान में जो त्रस प्राणी है, वे भूतकाल में चाहे स्थावर रहे हो या और कोई, अथवा भविष्य में स्थावर बनेंगे या अन्य योनियों में जायेंगे, उनसे प्रत्याख्यानी का कोई सम्बन्ध नहीं है। प्रत्याख्यानी के प्रत्याख्यान का सम्बन्ध उसकी वर्त्तमान जाति अर्थात् जीवों से है और उन्हीं की हिंसा का त्याग है। स्थावर काय प्राणी भी यदि वर्त्तमान में त्रस रूप में उत्पन्न होंगे तो श्रावक उनके वध का त्याग भी अवश्य करेगा। अतः जो ब्राह्मण के वध का त्यागी है, वह अन्य पर्यायों में या अन्य शरीर में उत्पन्न हुए उस ब्राह्मण के जीव का घात करता है, तो उसका व्रतभंग नहीं होता । दूसरी बात है कि यह 'भूत' शब्द का प्रयोग निरर्थक है। त्रस के साथ भूत शब्द जोड़ने पर प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान हो जाता है या प्रतिज्ञाभंग नहीं होती, ऐसा कहना भ्रामक है। क्योंकि जो अर्थ 'स' पद से प्रतीत होता है, वही सभूत से प्रतीत होता है । अत: त्रस तथा त्रसभूत दोनों शब्द एकार्थक है । चूर्णिकार तथा वृत्तिकार ने 'भूत' शब्द पर विस्तार से विमर्श किया है। भूत शब्द औपम्य (उपमा या सादृश्य) तथा तादर्थ्य- इन दो अर्थों में प्रयुक्त होता है। 'यह अन्त: पुर देवलोकभूत (देवलोक सदृश) है।' यहाँ 'भूत' शब्द का प्रयोग उपमा के अर्थ में हुआ है। नगर को देवलोक 'भूत' कहने का अर्थ नगर देवलोक नहीं बल्कि देवलोक जैसा है। त्रसभूत का अर्थ भी त्रस सदृश (तुल्य) होगा। ऐसा होने पर 'स जैसे प्राणी के वध का त्याग' होगा। परन्तु त्रस प्राणियों की हिंसा का त्याग नहीं होगा। मगर यह अर्थ यहाँ अभीष्ट नहीं है । तादर्थ्य में 'भूत' शब्द का प्रयोग व्यर्थ है । जैसे- शीतीभूत उदक शीत कहलाता है, वैसे ही त्रसीभूत जीव त्रस कहलाता है। यहाँ 'भूत' शब्द किसी न्यूनाधिक अर्थ को प्रकट नहीं करता, तब त्रस शब्द के प्रयोग पर आपत्ति क्यों होनी चाहिए ।" उदक - गौतम ! तुम त्रस प्राणियों को ही बस कहते हो या अन्य प्राणियों कोस कहते हो ? गौतम - उदक ! जिन्हें तुम त्रसभूत कहते हो, उन्हींको हम त्रस कहते है। वर्तमान में जो प्राणी त्रस नामकर्म के उदय को प्राप्त है, वे ही त्रस है । उदक - गौतम ! मेरी यह स्थापना है कि यदि सभी त्रस जीव एक काल में स्थावर हो गये तो श्रमणोपासक का यह प्रत्याख्यान असफल और निरर्थक हो जायेगा। क्योंकि सकाय के सभी जीव स्थावरकाय में और स्थावरकाय के 218 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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