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________________ वृत्तिकार' ने शेषद्रव्या का अर्थ इस प्रकार स्पष्ट किया है कि अपने निवास के लिये बनाये गये मकान से जो शेष सामग्री (द्रव्य) बचे, उस द्रव्य द्वारा उस उदकशाला का निर्माण करवाना। सम्भवत: इसी कारण उसका शेषद्रव्या ऐसा नाम रखा गया होगा। उस उदकशाला के ईशान कोण में हस्तियाम नामक हराभरा शीतल वनखण्ड था, जिसमें श्रमण महावीर के प्रथम गणधर एक बार ठहरे। उस समय पापित्यीय पेढालपुत्त उदक नामक निर्ग्रन्थ ने उनके पास आकर प्रत्याख्यानविषयक शंका, जिज्ञासा प्रस्तुत की, जिसका इन्द्रभूति गौतम ने सोदाहरण विस्तृत समाधान किया। उदक ने गौतम स्वामी से श्रावक के प्रत्याख्यान विषयक प्रश्न पूछते हुये कहा- आर्य गौतम ! आपके कुमारपुत्र नामक निर्ग्रन्थ श्रमण श्रावकों को इस प्रकार प्रत्याख्यान कराते है- तुम्हारे राजा आदि अभियोग को छोड़कर 'गृहपतिचोर ग्रहण-विमोक्षण' न्याय से त्रस प्राणियों की हिंसा करने का प्रत्याख्यान (त्याग) है। इस प्रकार का प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है, क्योंकि उनके द्वारा अन्य सूक्ष्म या बादर प्राणियों का उपघात होता है। उस हिंसा का अनुमतिजनित कर्मबंध साधु को क्यों नहीं होता ? उपरोक्त संवाद में 'अभियोग' शब्द परतंत्रता अथवा बलात् आज्ञा के अर्थ में है, जो पाँच प्रकार का है - 1. राजाभियोग - राजाभियोग या राजाज्ञा से की जाने वाली प्रवृत्तियाँ, जैसे - युद्ध करना, हिंसक पशुओं को मारना आदि। 2. गणाभियोग - गण-समुदाय की परतंत्रता से प्रवृत्ति करना। 3. बलाभियोग - बलशाली व्यक्ति की परवशता से प्रवृत्ति करना । 4. देवताभियोग - देवाज्ञा से कार्य करना। 5. महत्तराभियोग - माता-पिता-गुरुजन आदि बड़ों की आज्ञा से कार्य करना। उदक के मन को समाहित करने के लिये गौतम गणधर ने 'गृहपति-चोर ग्रहण-विमोक्षण न्याय' का दृष्टान्त देते हुए कहा- एक राजा ने वणिक् के छह पुत्रों को आज्ञाभंग के अपराध में मृत्युदण्ड दिया। पिता ने राजा से कहा- मेरी सारी सम्पत्ति ले-लें परन्तु आप मेरे छहों पुत्रों को मुक्त कर दे। राजा ने प्रार्थना स्वीकार नहीं की। तब वह वणिक् हताश होकर पाँच, चार, तीन, दो पुत्रों के जीवनदान की राजा से याचना करने लगा। जब राजा नहीं माना तो अन्त में 216 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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