SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न अर्थात् नहीं और अलं अर्थात् पर्याप्त, बस । इन तीनों अर्थों का संयोग करने पर जो अर्थ निष्पन्न होता है, वह इस प्रकार है - जहाँ देने की बात में किसी ओर से बस, ना नहीं है। अर्थात् जहाँ सभी दान देने के लिये तत्पर है, उस नगरी का नाम नालन्दा है। दान लेने वाला चाहे आजीवक हो, चाहे परिव्राजक, चाहे श्रमण हो अथवा ब्राह्मण, सभी के लिये दान सुलभ है। नियुक्तिकार' ने नालंदा शब्द के नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव ये चार निक्षेप करते हुए अलं शब्द के तीन अर्थों को सूचित किया है - (अ) पर्याप्तिभाव - सामर्थ्य, जैसे- अलं मल्लो मल्लाय। (ब) अलंकार - अलंकृत करने के अर्थ में- अलंकृतं (महावीर ने ज्ञातकुल को अलंकृत किया) ___ (स) प्रतिषेध - अलं मे गृहवासेन- अब मैं गृहवास में नहीं रहना चाहता। नियुक्तिकार तथा वृत्तिकार ने प्रस्तुत अध्ययन का नाम नालन्दीय होने के पीछे दो कारण प्रस्तुत किये है - 1. नालन्दा के समीप मनोरथ नामक उद्यान में गणधर गौतम द्वारा पापित्यीय पेढालपुत्र उदक के साथ संवाद या धर्मचर्चा होने के कारण तथा 2. नालन्दा से सम्बन्धित विषय होने के कारण। कहा जाता है - यहाँ राजा श्रेणिक तथा बड़े-बड़े श्रेष्ठी सामन्तों का इस नगरी में निवास होने से इस नगरी का ‘नारेन्द्र' नाम भी प्रख्यात हुआ, जिसका मागधी उच्चारण नालेन्द्र, बाद में हस्व होने पर 'नालिन्द' तथा इ का अ होने पर नालन्दा हुआ। नालन्दा की प्रसिद्धि जितनी जैनागमों में है, उतनी ही बौद्धपीटकों में भी है। आगे के समस्त अध्ययनों में साध्वाचार का वर्णन किया गया है परन्तु आलापकों में निबद्ध इस अध्ययन के प्रारम्भ में शास्त्रकार ने नालन्दा निवासी लेप नामक उदार, धर्मनिष्ठ, श्रद्धानिष्ठ श्रमणोपासक का वर्णन किया है। लेप परमतत्वज्ञ तथा जैनधर्म का अनन्य श्रद्धालु था। उसके घर का मुख्यद्वार सदैव याचकों के लिये खुला रहता था। दानवीर तथा अनेक विशिष्ट गुणों से सम्पन्न उसका निर्मल यश चारों और फैला हुआ था। वह इतना विश्वस्त था कि राजा के अन्त: पुर में भी उसका प्रवेश बेरोकटोक होता था। उस लेप ने नालन्दा के इशान कोण में "सेसदविया' अर्थात् शेषद्रव्या नामक एक विशाल उदकशाला निर्मित करवायी थी। सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 215 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy