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________________ है, वह महान पुण्यराशि का उपार्जन कर देवगति में उत्पन्न होता है। ऐसा हमारा वेदवाक्य है। आर्द्रक मुनि - मार्जार की तरह घर-घर भटकने वाले दो हजार स्नातकों को जो खिलाता है, वह तीव्र वेदनामय नरक में जाता है क्योंकि वैडालिकवृत्ति वाले मांसभक्षी ब्राह्मणों को भोजन कराना कुपात्रदान देना है। दयाप्रधान धर्म की निन्दा तथा हिंसात्मक धर्म की प्रशंसा करने वाला मनुष्य यदि एक भी दुःशील को भोजन कराता है, तो वह मांसभक्षी, वज्र-चंचु पक्षियों से परिपूर्ण तथा भयंकर वेदनायुक्त नरक में उत्पन्न होता है।26 4. एकदण्डी परिव्राजक (सांख्यमतवादी) एवं आर्द्रक मुनि का तात्विक संवाद एकदण्डी साधक - हे आर्द्रक मुने ! तुम्हारे तथा हमारे सिद्धान्त में कोई खास अन्तर नहीं। श्रमण धर्म तथा सांख्य धर्म अनेक बातों में समान है। जैसेहम जिन्हें पाँच यमों के रूप में स्वीकारते है, उन्हें आप पंच महाव्रत कहते है। तुम्हारी तरह हम भी युगमात्र भूमि देखकर चलते है। हमारा शील प्रधान आचार भी समान है। हम भी केसरिका (रजोहरण) रखते है। पुनर्जन्म की मान्यता में भी कोई भेद नहीं है किन्तु हम एक अव्यक्त, लोकव्यापी, सनातन, अक्षय तथा अव्यय आत्मा को मानते है। वह सभी चेतन-अचेतन भूतों में सर्वात्मना स्थित है। जैसे सभी ताराओं के साथ एक ही चन्द्रमा संबंध रखता है, वैसे ही सभी आत्माओं के साथ विश्वव्यापी एक ही आत्मा संबंध रखती है। आर्द्रक मुनि - हे एकदण्डियों! तुम्हारी एकात्मवादी मान्यता उचित नहीं है, क्योंकि आत्मा को सर्वव्यापी मानने पर नरक, तिर्यंच, मनुष्य आदि भेद नहीं किये जा सकेंगे। आत्मा को सर्वगत मानने से न जीव मरेंगे, न संसार में भ्रमण करेंगे। न ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और प्रेष्य होंगे, न कीट, पक्षी और सर्प होंगे। क्योंकि असर्वगत आत्मा के लिये ही संसार घटित होता है। सर्वव्यापी होने की स्थिति में विभिन्न गतियों और योनियों में परिवर्तन कैसे सम्भव होगा ? परिपूर्ण ज्ञान से लोक को जाने बिना जो दूसरों को धर्मोपदेश देते है, वे अपना एवं दूसरों का नाश करते है। जो पूर्ण केवलज्ञान के द्वारा समाधियुक्त हो लोकस्वरूप को समझकर धर्मोपदेश देते है, वे स्वयं संसार से तिरते है और दूसरों को भी तारते है। सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 211 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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